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________________ १६६ ] _ वराग्यरंग कुलकम् केणवि कुणंति हासं, कस्स वि वयणे हि सुकयनिन्नासं। विरयंति नेहपास, कत्थ वि दंसेति पुण तासं ॥१५॥ ___ अर्थ-किसी के साथ हास्य करती है और सुकृतों को वचनों द्वारा नष्ट करती है, स्नेहरूपी पाश में जकडती है तथा किसी को वक्र मोह से त्रास देती है ।।१५।। कत्थ वि दिविनिवेसं, कुणंति कत्थ वि उभडं वेसं। कत्य वि निकरफासं,करेंति तायो मयणवासं॥१६॥ अर्थ-किसी के साथ दृष्टि विभ्रम उत्पन्न करती है, किसी के साथ रहकर उद्भट वेश को धारण करती है अर्थात् वेश विन्याल से मोहित करती है तथा किसी के साथ अपना हस्त का स्पर्श जन्य कामोत्पाद उत्पन्न करती है ।। १६ ।। इअ तासि चिटायो, चंचल चित्ताण हुंति गोगविहा। इकाए जीहाए ताकह कहिउं मए सका ॥१७॥ अर्थ-इस प्रकार स्त्री की चेष्टायें चंचल चित्तवाली होने से अनेक प्रकार की होती हैं, उसका मैं एक ही जिहा द्वारा कहने के लिये किस तरह शक्तिवन्त हो सकूँ ? ।।१७।। अहवा विसमा विसया चवला पाएण इथियो हुति। माल्लियाय तेण य चिट्ठति अणेगहा एवं ।। १८ ॥
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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