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________________ १६२ ] वैराग्यरंग कुलकम् श्रथ वैराग्यरंग कुलकम् [ हिन्दी सरलार्थ युक्तम् ] मूलकर्ता - श्री इन्द्रनन्दी नामक गुरोः शिष्यः । श्रर्थकर्त्ता - श्राचार्य श्रीमद् विजय सुशीलसूरिः । 昕 पणमिय समलजिशिंदे, निश्रगुरुचलणे व महरिसि सव्वे वेरग्गभाव जायं, भावणकुलयं लिहेमि श्रहं ॥ १ ॥ अर्थ - सर्व जिनेश्वरों को नमस्कर करके तथा अपने गुरु के चरण कमल को और सभी महपिंओं को भी नमस्कार कर के वैराग्य भाव को उत्पन्न करने वाले इस 'भावना कुलक' को मैं लिखता हूं - अर्थात् में रचना करता हूँ ॥ १ ॥ जीवाण होइ इट्ट सुखं मुखं विश्र तं नत्थि । जइ श्रत्थि किमविता पुण निच्चं वेरग्गरसियाखं ॥ २ ॥ अर्थ - प्राणी मात्र को सुख ईष्ट है, किन्तु वह ( सुख ) मोक्ष के अतिरिक्त अन्य नहीं है और ( संसार में ) जो कुछ भी सुख है तो वह निरन्तर वैराग्य के रसिक जीवों को ही है ( अन्य को नहीं ) || २ |
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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