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________________ वैराग्य कुलकम् [ १६१ - पत्तम्मि मरणसमए,डज्झमि सो अग्गिणा तुमं जीव ! वग्गुरपडियो व मत्रो, संवट्टमिउ जहवि पक्खी।२०॥ ___ अर्थ-जाल में पड़ा हुआ संवर्तमृगपक्षी जैसे मृत्यु पा गया वैसे हे जीव ? मन्यु समय आने पर तूं शोक रूपी अग्नि से जलता है दुःखी होता है ॥२०॥ ता जीव ! संपयं चिय, जिणधम्मे उजमं तुमं कुणसु। मा चिन्तामणिसम्मं, मणुयत्तं निप्फलं गेसु ॥२१॥ अर्थ-इसलिये हे जीव! अव तू जिनधर्म में उद्यम कर, चिन्तामणिरत्न के जैसा मनुष्य भव निष्फल न गुमा ॥२१॥ ता मा कुणसु कसाए, इंदियवसगो य मा तुमं होसु। देविंद साहुमहियं, सिवसुक्खं जेण पावाहिसि ॥२२॥ अर्थ-इसलिये [ हे जीव!] तूं कषायों को मत कर और इन्द्रियों के वश नहीं होना, जिससे देवेन्द्रों से और साधुओं से पूजित ऐसा मोक्ष सुख को तू पायेगा ॥२२॥ ॥ इति श्री वैराग्य कुलकस्य हिन्दी सरलार्थः समाप्तः ॥
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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