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________________ खामणा कुलकम् [ १५७ रुद्द खुद्दसहावो, जाश्रो गोगासु मिच्छ जाइसु । धम्मो त्ति सुहो सद्दो, कन्नेहि वि तत्थ नो विसुहो ॥ २१ अनेक म्लेच्छ भवों में जहां जन्मा और धर्म जैसा कोई शब्द भी कानों से नहीं सुना ||२१|| परलोग निष्पिवासो, जीवाण सयाऽवि घायण सत्तो । जं जाओ दुहहेउ, जीवाणं तं पिखामि ॥२२॥ वह -- म्लेच्छ भवों में परलोक के भयरहित जीवन करने वाला मैं हिंसा में सदैव प्रवृत्त रहा, और जीवों को कष्ट दिया उन सबसे त्रिविध क्षमा याचना करता हूं ॥ २२ ॥ रियखित्ते विमए, खट्टिगवामुरियडुम्बजाईसु । जे वि हया जियसंघा, ते वि यतिविहेण खामेमि ॥ २३ आर्यक्षेत्र में उत्पन्न होने पर भी मैंने कसाई पारधि चण्डाल आदि जातियों में जन्म लिया कई जीवों को मारा इन सबके लिये उन जीवों से क्षमा याचना करता हूं ||२३|| मिच्छतमोहिएणं, जे विहया के वि मंदबुद्धिए । अहिगरणकारणेणं, वहाविद्या ते विखामेमि ||२४
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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