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________________ १२८ ] जीवानुशास्ति कुलकम् रे जीव ! कम्मभरियं, उवएसं कुणासि मूढ ! विवरियं । दुग्गइ गमणमणाणं, एस for fees (cas) परिणामो ॥ ३ ॥ हे मृढ जीव ! तू पाप कर्म से भरे विपरीत उपदेश कर रहा है । दुर्गति में जाने वालों के मन में ऐसे ही दुष्परिणाम उत्पन्न होते हैं और यह भावी दुर्गति का सूचक है || ३ || रे जीव ! तुमं सीसे, सबणा दाऊण सुणसु मह वयणं । जं सुक्खं न विपाविसि, ता धम्मविवज्जियो नूगां ॥ ४ ॥ हे जीव ! तू कान खोल कर मेरा वचन सुन ! तू जो सुख को प्राप्त नहीं कर रहा है इसका तात्पर्य ही यह है कि तू धर्म रहित है । धर्म नहीं तो सुख भी नहीं ॥ ४ ॥ रे जीव ! मा विसाय, जाहि तुमं पिच्छिऊण पर रिद्धी । धम्मरहियाण कुत्तो ?, संपज्जइ विविहसंपत्ती ॥ ५ ॥
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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