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________________ जीवानुशास्ति कुलकम् [ १२७ [१३] ॥ जीवानुशास्ति कुलकम् ॥ रे जीव ! किं न बुज्झसि, चउगइसंसारसायरे घोरे। भमिश्रो अणंत कालं, श्ररहट्टघडिब्ब जलमज्झे ॥१॥ हे जीव ! चार गति रूप भयंकर संसार समुद्र में पानी में रहट के घडाओं के समान भ्रमण करता हुआ तू अनंत काल तक भ्रमण जीवायोनि में करता रहा। अभी भी तू क्यों मूर्छित है बोध पामता नहीं है ॥१॥ रे जीव ! चिंतसु तुम, निमित्तमित्तं परो हवइ तुम। असुह परिणाम जणियं, फलमेयं पुवकम्माणं ॥२॥ ___ हे जीव ! तेरे भव भ्रमण में दूसरे तो निमित्त मात्र हैं वास्तव में भ्रमण में अशुभ परिणाम का जुम्मेदार तो तू ही स्वयं है ॥ २॥
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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