________________
७४ श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. [प्रथम सोहमसुर छटे भवे, भवभ्रमण करि जेह । पुष्पमित्र सप्तम लहो, अष्टम सोहम तेह ॥ १८ ॥ अग्निद्योत नवमे दशम, ईशाने सुर होय । अग्निभूति इग्यारमें, बारम तिय-देवलोय ॥१९॥ भारद्वाज भव तेरमें, माहेन्द्र भमे संसार । स्थावर पंदर सोलमें-ब्रह्मदेव अवतार ॥२०॥ भवभमीने सतरमें, विश्वभूति द्विज नाम । शुक्रे सुर अट्ठारमें, तिविठ्ठ-केशव धाम ॥२१॥ वीसम भव सप्तम नरक, इकवीसे सिंह होय । बावीसमें नरके गया, संसार भमिया सोय ॥२२ ।। प्रियमित्र चक्री थया, सप्तमकल्प चोवीस ।। नंदननृप पचवीसमें, दशमकल्प छबीस ॥२३॥ ग्यार लाख एंसी सहस, छेसो पेंतालीस । मासखमण नंदन भवे, कीधा वीर जगीश ॥ २४ ॥ सत्तावीसम भवे हुवा, त्रिशलानंदन वीर । चरम जिनपति मानिये, जगमें जे महावीर ॥२५॥ शेष जिनेश्वरोना त्रण त्रण भवऋषभ चन्द्र शांति सुव्रत, नेमि पार्श्व ने वीर । वरजी सातने शेष जिन, भव तीजे हरि पीर ॥ २६ ॥ द्वीप-क्षेत्र-विजयादिनु, देव भव बीय जाण । तीजे जिन भव शेष जिन, त्रिभव संख्या माण ॥ २७॥