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जे चउथिनई दिहाडइ पजूसणर्नु मानवू अनई पाषी(खी)नई दिहाडई जे उमासीनु करि ते तीर्थकरनी आज्ञा जाणिवी, तिम जीतव्यवहार, पणि पालवु हुइ। इति प्रथमगाथार्थः ॥२०॥
(ભાષા)–“જે ચેથને દિવસે પર્યુષણનું માનવું અને પશ્મીને દિવસે જે માસીનું કરવું તે તીર્થંકરની આજ્ઞા જાણવી, તેમ જિનવ્યવહારનું પણ પાલવું હોય એમ प्रथम माथाय थयो." २० ।
चउथिइं पजूसण अनई पाषी(खी)[न]ई उमासु कीजइ एहवी तीर्थकरनीइ आज्ञा छइ किंवा नथी एहवो जे संदेह [ प्रतिइं ] जि केइ करइ तेह उद्दिसीनई बीजी गाथानु अर्थ कहीइ छइ'जं.'। जेह भणी 'वायणंतरे पुण' इत्यादिक पाठ श्रीकल्पसूत्रनइं विषइ कहिउ छइ अनइं तेहनी 'संदेहविषौषधी' इसिइं नामई जे टीका रेहनई विषइ एह आल्वानु अर्थ वषा(खा)णिउ छइ । हवइ चउथिई पजूसण अनइं चउदसीइं चउमासु एह जे पूर्विई कहिउं तेहना संवादनइ काजइ कल्पसूत्रनु आलावो लिखीइ छइ-" वायणंतरे पुण अयं नवसयतेणउए संवच्छरे काले गच्छइ इति दीसइ"। एह श्रीकल्पसूत्रनु पाठ एहनु अर्थ लिखीइ छइ-.." त्रिनतियुतनवशतपक्षे वियता कालेन पञ्चम्याश्चतुर्थी पर्युषणापर्व प्रववृते" इत्यादि । एह अक्षरनइं अनुसारइं पंचमीथिकु चउथिई पजूसण प्रवतिउं । वली तेह ज टीकानई विषइ कहिउं छइ
सालाहणेण रण्णा, सधारसेण कारिओ भयवं । पजोसवण चउत्थीए, चाउम्मासं चजहसीसि ॥१॥ चउमासगपडिकमणं, पक्खियदिवसम्मि घडविहोसंघो।
नवसयतेणउपहि, आयरगं तं पमाणं ति ॥२॥ इत्यादिक तित्थुग्गाली प्रमुख जे ग्रंथ तेहनइं विषइ कहिउं छइ । हबइ कोइ एक इम कहइ जे 'तीर्थकरइं तु पजूसण पांचमि अनइ चउमास पूर्णिमाई कीg, तेह कारण आपण पणि तिम ज करीइ,' ईम जे कहइ तेह प्रतिई इम कहीइ-रे बापडाउ ! तीर्थकरनी आज्ञा ज मानवी पणि कर्तव्य करिख नहीं, जउ तीर्थकरनु कर्तव्य ज करु छउ तउ रजोहरण अनइ मुहपती तेह- प्रहिवं अनई पडिकमणानुं करिवू इत्यादिक कर्तव्य कांइ करउ छउ ? जेह भणी तीर्थकरनई एतला प्रकार कीधा नहीं तउ तुह्मइ एतला वानां किसिइं हेतई करउ छ ! अनई शास्त्रनई विषइ आता ज मानवी कही छइ, पणि तीर्थकरनुं कर्तव्य कहिउं नथी' । अनई जि केइ चउमासु पूर्णिमाई मानइ छइ तेहनइ आज्ञानु विराधकपणुं जाणिवू । जेह भणी ठाणांगनई विषइ दशविधसमाचारीमाहिं तथाकारसामाचारी कही छइ । तथाकारसामाचारी तेह तणु अर्थ कहीइ छइ-तथाविध जे आचार्य तेहनी आज्ञानुं तहत्ति करीनइ मानवू तेह तथाकारसामाचारी कहीइ । तउ तुम्हे विचारु -युगप्रधान श्रीकालिकाचार्य तेहनी आज्ञा प्रतिइं जेह न मानइ तेहनई ठाणांगनई वचनई करी आज्ञानु आराधकपणु किंवा विराधकपणुं ? तीर्थकरई तु तेहनई आज्ञानुं आराधकपणुं कहिउं नथी, विचारी जोज्यो । इति द्वितीयगाथार्थः ॥२१॥