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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [षष्ठोऽधिकारः, अष्टौ मदस्थानानि टीका-रखैरिव चाटुशब्देन समानार्थश्चटुशब्दोऽपि विद्यते । बहुलवचनाद्वा उकारः प्रत्ययो भवति । चटुकमैव चटुकर्मकम् । 'अनुवृत्तिः तत्प्रयोजनानुष्ठानं तद्गुणप्रशंसा विष्टरादिदानम् ' इत्येवं कुर्वाणो लोकस्य वल्लभो भवति । आचार्यादीनामामोदितमभ्युत्थानादि क्रियमाणं चटुकर्म न दोषमावहति । उपकारो निमित्तं यस्य चटुकर्मणः तदुपकारनिमित्तकम् । उपकारोऽनेन प्राग् मम कृतः, करिष्यते वाऽतश्चटुकर्म करोति । 'परजनस्य ' इति गृहस्थादिसूचनम् । तच्चटुकर्म कृत्वा यदवाप्यते वालभ्यकं को मदस्तेनेति-श्वेवावलेहनादिदायिनः पुरः स्थित्वा श्रवणपुच्छचालनादि कृतोपकारस्य यद्वाल्लभ्यकमवाप्नोति कि तत्र चित्रमिति ॥९३॥ अर्थ-उपकारके निमित्त दीन मनुष्योंके समान दूसरे लोगोंकी चापलूसी करके जो उनका प्रेम प्राप्त किया जाता है, उसका क्या मद ? भावार्थ-इसने मेरा उपकार किया है, अथवा आगे करेगा, यह सोचकर मनुष्य भिखारि-६ योंकी तरह दूसरोंकी चापलूसी करता है। उसके पीछे-पीछे लगा रहता है, उसका काम करता है, उसकी बड़ाई करता है, और उसे बैठनेको आसन देता है । जिस प्रकार कुत्ता रोटीका टुकड़ा डालनेवालेके आगे खड़ा होकर अपने कान और पूछ हिलाता है । इस तरहके कामोंसे दूसरोंका जो प्रेम प्राप्त होता है, उसमें कोई अचरज नहीं है । अतः उसका मद करना वेकार है। गर्वं परप्रसादात्मकेन वाल्लभ्यकेन यः कुर्यात् । तद्वाल्लभ्यकविगमे शोकसमुदयः परामृशति ॥ ९४ ॥ टीका-गर्वः-अभिमानः बहुजनवल्लभोऽहम् ' इति परप्रसादेन जनितः । परो हि चटुक्रर्मकारिणः परितुष्टाः कश्चित् प्रसादं करोति वस्त्रानपानादिकम् । तावन्मात्रेण च गर्वितो भवति । तं चटुकर्मकारिणं वालभ्यकविगमे-विगते-वल्लभत्वे द्वेष्यत्वे जाते, शोकसमुदयः परामृशति छुपति-तथानुवर्तितोऽयमेकपद एव निःस्नेहो जातः । यावन्ति चटुकर्माणि कृतानि तावन्त एव शोकाः शोकसमुदयस्तेन स्पृश्यते । शोकश्चित्तपीडाविशेषः ॥ ९४ ॥ __ अर्थ-दूसरोंके अनुग्रहसे प्राप्त हुए प्रेमका जो मनुष्य गर्व करता है, उस प्रेमके नष्ट हो जानेपर उसे बड़ा भारी रंज होता है । भावार्थ-चापलूसी करनेवालेसे प्रसन्न होकर दूसरे मनुष्य उसपर अनुग्रह करते हैं, उसे अन्न-वस्त्र देते हैं । उतने ही से वह गर्व करता है कि मैं बहुतसे मनुष्योंको प्रिय हूँ। किन्तु जब प्रेमका स्थान द्वेष ले लेता है तब उसने जितनी हो खुशामद की थी, उतना ही उसे रंज भी उठाना पड़ता है कि इतनी खुशामद करनेपर भी अमुक मनुष्य एकदम ही दुश्मन बन गया। श्रुतका मद नहीं करना चाहिए :माषतुषोपारव्यानं श्रुतपर्यायप्ररूपणां चैव । श्रुत्वाति विस्मयकरं विकरणं स्थूलभद्रमुनेः ॥ ९५ ॥ १-वर्तिनो-प०, फ० ब०।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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