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कारिका ८७-८८-८९]
प्रशमरतिप्रकरणम् तस्मादनियतभावं बलस्य सम्यग्विभाब्य बुद्धिबलात् ।
मृत्युबले चाऽबलतां मदं न कुर्याद्वलेनापि ॥ ८८ ॥
टीका-अनियतो भावः सत्ता यस्य, कदाचिद्भवति कदाचिन्न भवति ' इति बलम् उक्तेन न्यायेन इति सम्यग विभाव्य विज्ञाय यथावत् । ' कथं पुनरभावो बलस्य ? ' इत्याह'बुद्धिगम्यमेतत् ' इति प्रतिपादयति । मृत्युबले चोपतिष्ठमाने न शरीरबलं न स्वजनबलं न द्रव्यबलं क्रमते प्रतिक्रियायै । अतो मदं न कुर्यात् सम्यग्विभावितत्वादसमर्थो बलेनापि ॥८॥
अर्थ-अतः बुद्धिकी शक्ति के द्वारा बलकी अस्थिरताको भलीभाँति जानकर तथा मौतके सामने शारीरिक बलकी निर्बलताको देखकर बलका मद नहीं करना चाहिए।
भावार्थ-बल सर्वदा नहीं बना रहता, यह बात हरेककी बुद्धि में समा सकती है । और मौत सामने आनेपर तो सभी बल वेकार होजाते हैं । अतः बलका मद नहीं करना चाहिए।
लाभका मद नहीं करना चाहिए :
उदयोपशमनिमित्तौ लाभालाभावनित्यको मत्वा ।
नालाभे वैक्लव्यं न च लाभे विस्मयः कार्यः॥८९॥ टीका-लाभान्तरायकर्मणः क्षयोपशमाल्लाभो भवति भक्तपानवस्त्रपात्रप्रतिश्रयपीठफलकादेः। लाभान्तरायकर्मोदयाच्च न लभते किञ्चिदपि । अतो नास्ति नित्यो लाभः, नाप्यलाभः। नित्यानित्यौ च लाभालाभौ विज्ञाय नालाभे वैक्लव्यं दीनता कार्या, नॉतिलाभे सति विस्मयो गर्व : कार्यः। यदि लभ्यते ततो धर्मसाधनं शरीरकर्माद्यं दशविधचक्रवालसामाचारी समाचरणसमर्थ भविष्यति । न चेल्लब्धं तथाप्यदीनचेतसः साधोर्निर्जराभाक्त्वं भविष्यति । कर्मोदयक्षयोशमजनितः खल्वयंभावो न स्वतो लाभालाभलक्षण इति ॥ ८९॥
अर्थ-लाभान्तरायकर्मके क्षयोपशमसे लाभ होता है और लाभान्तरायकर्मके उदयसे कुछ भी लाभ नहीं होता । अतः लाम भी नित्य नहीं है और अलाभ भी नित्य नहीं है । ऐसा जानकर अलाममें दीनता नहीं करनी चाहिए और लाभके होनेपर गर्व नहीं करना चाहिए।
भावार्थ-यदि साधुको आहारादिकका लाभ हुआ तो वह धर्म-साधनके आधारभूत शरीर वगैरहका पालन करता है और यदि लाभ न हुआ तो भी दीनता रहित . चित्तवाले साधुके कर्मोंकी निर्जरा होती है । अतः लाभ और अलाभको कर्मके क्षयोपशम और उदयका फल जानकर दोनोंमें समभाव रखना चाहिए।
१-वाऽब-प० फ० ब० । २-वोप-१० ब०। ३-कादिः-फ० ।-कादि ब०। ४-न नि-प०। ५-नापि ला-प०। ६-लमते-फ०। ७-कमार्थ-फ०. य०, मु०। ८-समा-फ०, ब०।