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कारिका ६५-६६-६७ ]
प्रशमरतिप्रकरणम् अर्थशास्त्र के ज्ञानके विना हित नहीं हो सकता, और विनयके विना शास्त्रका ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए जो शास्त्रके ज्ञानका इच्छुक हो उसे विनयी होना चाहिए।
___ भावार्थ-शास्त्रका लक्षण आगे कहेंगे । जो सन्मार्गका उपदेश देता है और दुर्गतिसे बचाता है वह शास्त्र है । भगवान्के मुख-कमलसे निकला हुआ अर्थ और गणधरदेवके मुख-कमलसे निकले हुए सूत्र-ये दोनों ही शास्त्र शब्दसे कहे जाते हैं । शास्त्रको ही आगम कहते हैं; क्योंकि गणधर वगैरह आचार्य-परम्परासे वह आता है। शास्त्रागमके विना कोई हित नहीं हो सकता, और शास्त्रका लाभ विनयके विना नहीं हो सकता । आचार्य आदि की सेवासे ही विनयीको शास्त्रकी प्राप्ति होती है। इसलिए जो शास्त्रागमका लाभ चाहता है, उसे विनयी होना चाहिए।
____'सत्स्वपि ' अनेकेषु गुणेषु पुंसां विनय एव भूषणं परम्, 'नान्वयरूपसौभाग्यादीनि' इति दर्शयन्नाह
अनेक गुणोंके होनेपर भी पुरुषोंका विनय ही प्रधान भूषण है। वंश, रूप, सौभाग्य वगैरह भूषण नहीं हैं, यही बतलाते हैं:
कुलरूपवचनयौवनधनमित्रैश्वर्यसम्पदपि पुंसाम् ।
विनयप्रशमविहीना न शोभते निर्जलेव नदी ॥ ६७॥
टीका-विशिष्टान्वयः कुलं क्षत्रियादि । रूपं शरीरावयवानां लक्षणान्वितः सन्निवेशविशेषः । वचनं मधुरं प्रियभाषित्ववाग्मित्वादि । यौवनं यूनो भावः। युवात्र मन्दरूपोऽपि शोभते प्रायो यौवनगुणादेव । धनं हिरण्यसुवर्णमणिमुक्ताप्रवालदिगोमहिण्यजाविकादि । मित्रं स्नेहवान् पुरुषो विश्रम्भस्थानम् । ऐश्वर्यमीश्वरस्य भावः प्रभुत्वम् । सम्पच्छन्दः प्रत्येकमभिसम्बन्धनीयः--कुलसम्पद्, रूपसम्पद् इत्यादि । सम्पत् प्रकर्षविशेषः । ऐषाऽपि कुलादिसम्पद् न भ्राजते पुरुषाणां विनयप्रशमविहीनत्वात् । विनयः अभ्युत्थानासनप्रदानाअलिप्रग्रहादिरुपचाराख्यः । प्रशमो माध्यस्थ्यमौदासीन्यम्। आभ्यां रहिता न शोभते निर्जलेव नदी । यथा सरिजलशून्या हंससारसक्रौञ्चचक्रवाककुलैरासेव्यमाना न भ्राजते अतिदीर्घगर्तमात्रमरमणीयमुद्वेजकमेव भवतीति । एवं विनयरहितः पुमानिति ॥ ६७ ॥
____ अर्थ–पुरुषोंकी कुल, रूप, वचन, यौवन, धन, मित्र और ऐश्वर्य सम्पदा भी विनय और वैराग्यसे रहित हो तो निर्जल नदीकी तरह शोभित नहीं होती। .. भावार्थ-क्षत्रिय वगैरह विशिष्ट वंशोंको कुल कहते हैं । शरीरके अङ्ग-उपाङ्गोंकी शुभ लक्षण सहित रचना-विशेषको रूप कहते हैं । मीठा, प्यारा बोलना वचन कहलाता है । यौवन जवानीको कहते
१ सौभाग्यादीति दर्श-मु०। २ गोमहिष्या ( ध्यौ) वाटिकादि वा मु. ३-मीश्वरभावः मुः। ४ विनयप्रशमाभ्यामित्यर्थ । ५ ते नातिदीर्घगर्तामात्रर-म०।