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________________ ४ कारिका ५५-५६-५७-५८-५९-६०-६१] प्रशमरतिप्रकरणम् अर्थ-यह संसार कर्ममय है और संसारके निमित्तसे दुःख होता है । इसलिए राग-द्वेष वगैरह संसारकी परम्पराके मूल हैं। ___ भावार्थ-यह संसार चार गतिरूप है और चारों गतियाँ कमौके उदयसे ही होती हैं। गतियोंमें जानेसे शारीरिक और मानसिक दुःख होता है। उससे राग-द्वेष होते हैं । राग-द्वेष आदिसे पुनः गति होती है । गतिमें सुख-दुःख होता है, उससे राग-द्वेष होते हैं । इस प्रकार राग-द्वेष वगैरह संसारकी 'कः पुनरस्य रागद्वेषादिजनितस्य संसारचक्रस्य भङ्गोपायः ? ' इत्याहअब राग-द्वेषसे उत्पन्न हुए संसार-चक्रके तोड़नेका उपाय बतलाते हैं : एतदोषमहासंचयजालं शक्यमप्रमत्तेन । प्रशमस्थितेन घनमप्युद्वेष्टयितुं निरवशेषम् ॥ ५८ ॥ टीका-दोषाणां रागाद्वेषादीनां तज्जनितकर्मणाञ्च महासञ्चयः-उपचयः । दोषमहासञ्चय एव जालम् । जालमिव जालम् । यथा मीनमकरादीनामादायकं जालं जीवनापहारि, तद्वदेतदपि जन्मान्तरेषु सत्वानामनेकदुःखसंकटावतारणे प्रत्यलं जीवितापहारि चेति । तदेतच्छक्यमप्रमत्तेन उद्वेष्टयितुं-विनाशयितुम् । प्रमादः कषायनिद्रादिः, तद्रहितेन, प्रशमस्थितेनेति, प्रशमार्पितमनसा प्रशमैकरसेन, धनं गहनम्, एतत् जालं निरवशेषम्आमूलादुद्धर्तुमिति ॥ ५८॥ अर्थ-जो अप्रमादी है और वैराग्यमें स्थित है, वह इस रागादि दोषोंके महान् संचयरूप घने जालको पूरी तरहसे नष्ट करनेमें समर्थ है। भावार्थ-जिस प्रकार मगर मच्छको पकड़नेके लिए बनाया हुआ जाल जीव-घातक होता है, वैसे ही राग-द्वेष वगैरह तथा उनसे संचित कर्मोंका यह जाल भी जन्मान्तरोंमें प्राणियोंको अनेक दुःखपूर्ण संकटोंमें डालनेवाला है । जो कषाय-निद्रा वगैरह प्रमादोंसे रहित है तथा जिसका मन वैराग्यके रसमें डूबा हुआ है, वही इस घने कर्म-जालको छिन्न-भिन्न कर सकता है। अस्य तु मूलनिवन्धं ज्ञात्वा तच्छेदनाद्यमपरस्य । दर्शनचारित्रतपःस्वाध्यायध्यानयुक्तस्य ॥ ५९॥ प्राणवधानृतभाषणपरधनमैथुनममत्वविरतस्य । नवकोटयुगमशुद्धोञ्छमात्रयात्राधिकारस्य ॥ ६०॥ जिनभाषितार्थसद्भावभाविनो विदितलोकतत्त्वस्य । अष्टादशशीलाङ्गसहस्रधारणे कृतप्रतिज्ञस्य ॥ ६१ ॥ प्र०६
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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