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________________ कारिका २५-२६-२७ ] प्रशमरतिप्रकरणम् २१ भावार्थ — मोहकर्मके उदयसे उत्पन्न हुए आत्माके क्रोध करनेरूप परिणामको क्रोध कहते हैं । क्रोध करनेसे इसी लोकमें अपने अत्यन्त प्रिय जनों के साथ भी प्रेमका नाता टूट जानेसे आत्माको बहुत दुःख होता है । मैं ही ज्ञानी हूँ, मैं ही दानी हूँ. ही शूरवीर हूँ, इत्यादि रूप आत्म-परिणामको घमंड या मान कहते हैं । मान करनेसे विनय नहीं रहती, और धर्मका मूळ विनय ही है । देव, गुरु, साधु, और वृद्ध जनोंकी यथायोग्य विनय करनी चाहिए । किन्तु जब मानका उदय होता है, तो वह विनय नष्ट हो जाती है । अमुक मनुष्य सच बोलता है, और उसके पास जो कुछ धरोहर रक्खो उसे वह लौटा देता है, लोक-व्यवहारके अनुसार इस तरहकी बातोंको प्रत्यय अर्थात् विश्वास कहते हैं । झूठ बोलने से और धरोहरको हड़प जानेसे वह विश्वास उठ जाता है। तथा तृष्णाको लोभ कहते हैं । लोभ करनेसे क्षमा मार्दव आदि सभी गुण नष्ट हो जाते हैं । सम्प्रति एकैकस्य क्रोधादेः व्यसनोपायं दर्शयन्नाह - अब क्रोधादिक प्रत्येक कषायको दुःख देनेवाली बतलाते हैं : : क्रोधः परितापकरः सर्वस्योद्वेगकारकः क्रोधः । वैरानुषङ्गजनकः क्रोधः क्रोधः सुगतिहन्ता ॥ २६ ॥ टीका - परितापो हि दाहज्वराभिभूतस्यैव क्रोधिनः परिदहनम् - अस्वस्थता । उद्वेगो भयम् । सर्वस्येति नारकतिर्यङ्-मनुष्यदेवाख्यस्यात्मनो भयमुत्पादयति । कुतश्चिन्निमित्तादुत्पन्नो वधबन्धनीभिघातादिसन्तानो वैरम् । तस्य अनुषङ्ग :- अनुबन्धः अन्वयः, तं जनयति - उत्पादयति । क्रोधः सुगतिः - मोक्षः, तां हन्ति । मुक्तत्यप्रापणसामर्थ्याद् 'हन्ति' इत्युच्यते । क्रोधा - विष्टाश्च सुभूमपरशुरामादयः श्रूयन्ते दुर्गतिगामिनः पारमर्षे प्रवचने । तस्मादिहपरलोक- ' योरपायकारी क्रोध इति युक्तः परिहर्तुम् ॥ २६ ॥ अर्थ - क्रोध परितापको करता है । क्रोधसे सभीको डर लगता है । क्रोध वैरको पैदा करता है और क्रोध सुगतिका घातक है । भावार्थ – दाहज्वरसे पीड़ित मनुष्य के समान क्रोधीकी अन्तरात्मा क्रोधसे सर्वदा जला करती है । क्रोधीसे सभी गतियों के जीव भय खाते हैं । क्रोधमें आकर किसीने किसीका वध कर दिया, या उसे जेलखाने में भिजवा दिया तो उस वैरकी परम्परा पीढ़ी दरपीढ़ी तक चलती रहती है। क्रोध सुगति अर्थात् मोक्षका भी घातक है; क्योंकि क्रोधी मनुष्यकी मुक्ति नहीं होती । शास्त्रों में सुना जाता है कि भूम और परशुराम वगैरहको क्रोधके कारण दुर्गतिमें जाना पड़ा है । क्रोध इस लोक और परलोक दोनोंमें हानिकारक है । अतः उसे छोड़ना ही योग्य है । श्रुतशीलविनयसंदूषणस्य धर्मार्थकामविघ्नस्य । मानस्य कोऽवकाशं मुहूर्तमपि पण्डितो दद्यात् ॥ २७ ॥ १ व्यासेनोपायान् ब० ।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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