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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वाविंशाधिकारः, अन्तफलाभिधानम् नुपादाय लब्ध्वा धर्मकथा कथिता। न तु विस्तारणोदिता। संक्षिप्ताामिमामाकर्ण्य श्रुत्वावधार्य रत्नाकरादिव जरत्कपर्दिकामित्यात्मन औद्धत्यं परिहरति । रत्नाकरादनेकरत्ननिधेः । तस्माद्यथा जरत्कपर्दिका मृजावती शोभना भवति, जरत्कपर्दिका तु परिपेलवा निःसारा च मयाल्पमतिना, तद्वादियं जरत्कपर्दिकास्थानीया आकृष्टा । तां जरत्कपर्दिकावदुद्धृतां भगवत्सु साधुषु भक्तिर्या प्रीतिस्तया प्रेरितेनाकृष्टामिति । आकृष्टेति प्रशमरतिः सम्बध्यते, उद्धृतेति कपर्दिका संबद्धयते इति ॥ ३१० ॥
निस्साराप्यषा प्रशमरतिः
सद्भिर्गुणदोषज्ञैर्दोषानुत्सृज्य गुणलवा ग्राह्याः ।
सर्वात्मना च सततं प्रशमसुखायैव यतितव्यम् ॥ ३११ ॥ . टीका-सन्तः साधवस्तैर्गुणदोषज्ञैर्गुणांश्च दोषांश्च अवगच्छन्ति ये ते गुणदोषज्ञास्तैः सद्भिन दोषानुत्सृज्य शब्दच्छन्दोऽर्थादिकान् परित्यज्य गुणलवा ग्राह्याः । लवग्रहणादल्पगुणत्वं दर्शयति । कियतो गुणान् वक्तुं शक्नोत्यस्मदादिः । सर्वात्मना सर्वप्रयत्नेन । सततं सदैव । वैषयिकसुखनिरभिलाषेण प्रशमसुखार्थमेव श्रुत्वा प्रयतितव्यमिति ॥ ३११॥
अर्थ-रत्नोंके आकर समुद्रसे निकाली गई जीर्ण कौड़ीकी तरह जिनशासनरूपी समुद्रसे भक्तिपूर्वक ली गई इस धर्मकथाको सुनकर गुण और दोषके ज्ञाता सज्जनोंको दोषोंको छोड़कर गुणके अंशोंको ग्रहण करना चाहिए । और सर्वदा सब प्रकारके प्रशम-सुखकी प्राप्तिके लिए ही प्रयत्न करना चाहिए।
भावार्थ-जिनशासन समुद्रकी तरह गंभीर और अनेक आश्चर्योंकी खान है । उस जिनशासनरूपी समुद्र में पड़े हुए अर्थोंको लेकर यहाँ संक्षेपमें धर्मकथा-प्रशमरतिको बताया है । समुद्रको रत्नाकर भी कहते हैं। क्योंकि उसमें रत्न भी पाये जाते हैं तथा शंख, सीप, कौड़ी जैसी तुच्छ वस्तुएँ भी पाई जाती हैं । अतः ग्रन्थकार अपने औद्धत्यको दूर करनेके लिए कहते हैं कि जिनशासनरूपी रत्नाकरसे निकाली गई होनेपर भी यह धर्मकथा रत्नके समान मूल्यवानू नहीं है; किन्तु किसी घिसी-घिसाई तुच्छ कौड़ीकी तरह निःसार है । फिर भी मैंने भक्तिवश इसका उद्धार किया है । अतः निःसार होनेपर भी इसे सुनकर गुण और दोषोंके पारखी सजनोंको इसमें जो दोष हों उन्हें छोड़ देना चाहिए। और जो गुणके लव हों उन्हें ग्रहण कर लेना चाहिए । लव, इसलिए कि हमारे जैसे अल्पमतिजन सम्पूर्ण गुणोंका कथन कर ही कैसे सकते हैं ? किन्तु उन गुण-लवोंको ग्रहण करके विषय-सुखकी अभिलाषाको छोड़कर निरन्तर सब प्रकार प्रशम-सुखकी प्राप्तिके लिए ही चेष्टा करते रहना चाहिए । सारांश यह है कि संसारको प्रशम-सुखकी ओर आकृष्ट करनेके उद्देश्यसे ही यह प्रकरण बनाया गया है और इसमें यही एक गुण-लव है। उसे ग्रहण करके उस ओर लगना चाहिए । इतना होनेसे ही ग्रन्थकार अपने श्रमको सफल समझते हैं।
१-प्रसुखार्थमेव-ब।