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कारिका ३०९-३१० ] प्रशमरतिप्रकरणम्
२१३ परम्पराका भोग करते हुए वह गृहस्थ आठ भवोंके अन्दर ही नियमसे मोक्षको प्राप्त करता है । अतः प्रारंभी गृहस्थ-धर्मका भी पालन करना चाहिए और अन्तमें साधु-धर्मका पालन करना चाहिए।
इत्येवं प्रशमरतेः फलमिह स्वर्गापवर्गयोश्च शुभम् ।
सम्प्राप्यतेऽनगारैरगारिभिश्चोत्तरगुणाढ्यैः ॥ ३०९ ॥
टीका-इतिशब्दः प्रकरणपरिसमाप्तिप्रदर्शनार्थः। एवमिति वर्णितेन न्यायेन। इहेति मनुष्येष्वेव वाहुल्येन स्वर्गफलम् । तिर्थग्गतौ च केषांचित् स्वर्गावाप्तिर्नान्यत्र । अपवर्गफलम्। पुनर्मनुष्येष्वेव । शुभमिति वैषयिकस्वाभाविकभेदादुभयमाप फलं शुभमिति । तदेव तदपवर्गारव्यं फलं प्राप्यतेऽनगारै : साधुभिः। अगारिभिश्च स्वर्गफलं प्राप्यते। अपवर्गफलं तु, पार. म्पर्येणावाप्यते गृहाश्रमिभिरिति । कीदृशैरनंगारैरगारिभिर्वा उत्तरगुणाढ्यै : प्रधानगुणयुक्तैर्मूलोत्तरगुणसम्पनैराढयनिरवद्याशेषसंयमानुष्ठायिभिरिति ॥ ३०९॥
अर्थ-इस प्रकार मनुष्योंमें उत्तरगुणोंसे सम्पन्न मुनि और गृहस्थ प्रशमरातिके द्वारा स्वर्ग और मोक्षके शुभ फलको प्राप्त करते हैं । यहाँ ' इति ' शब्द इस प्रकरणकी समाप्तिका सूचक है । तथा 'इह ' पदसे मनुष्योंका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि स्वर्ग-फलकी प्राप्ति अधिकतया मनुष्योंको ही होती है। तिर्यग्गतिमें भी स्वर्ग-फलकी प्राप्ति होती है; परन्तु बहुत कम । तथा मोक्ष-फल तो मनुष्यगतिमें ही प्राप्त होता है। यहाँ दोनों प्रकारके फलोंका ग्रहण किया गया है-एक वैषयिक और दूसरा स्वाभाविक । वैषयिक-फलकी दृष्टिस स्वर्ग प्रधान है और स्वाभाविक फल की दृष्टिसे मोक्ष प्रधान है। मोक्ष-फलको निर्दोष संयमके अनुष्ठाता संयमी जन ही प्राप्त करते हैं. और गृहस्थ जन स्वर्ग-फलको प्राप्त करते हैं तथा परम्परासे मोक्ष-फलको प्राप्त करते हैं। प्रशम-वैराग्यमें, रति-प्रीति होनेके कारण ही यह सब फल-प्राप्ति होती है । अतः वैराग्यमें मनको लगाना चाहिए।
उक्तो योऽर्थः प्रकरणप्रारंभात् प्रभृति स सर्व एव प्रवचने, न मया स्वमनीषिकया किञ्चित् कल्पितमत्र, प्रवचनस्य च महानुभावत्वमनयार्यया दर्शयति
प्रवचनका माहात्म्य बतलाते हुए प्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकरणमें आदिसे लेकर अन्ततक जो कुछ कहा है, वह सब प्रवचनमें विद्यमान है-अपनी बुद्धिसे कल्पित नहीं है:
जिनशासनार्णवादाकृष्टां धर्मकथिकामिमां श्रुत्वा ।
रत्नाकरादिव जरत्कपर्दिकामुद्धृतां भक्त्या ॥ ३१० ॥
टीका-जिनशासनमर्णव इव जिनशासनार्णवः । बहुत्वादनेकाश्चर्यनिधानं च । उपमानोपमेयभावः । तस्माजिनशासनसागरानिकृष्टामाक्षिप्तां जिनशासनोदधौ निहताना
१' कीदृशैः' इत्यारम्य 'निरवद्याशेषसंयमानुष्ठायिभिः ' इति पर्यन्तः पाठः ब• पुस्तके नास्ति ।