________________
२०४
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् . [ एकविंशाधिकारः, शिवगमनम्
तथा जिस प्रकार एरण्डफलके फटते ही उसके बीज चिटककर ऊपरकी ओर जाते हैं, उसी प्रकार कर्म-बन्धनके टूटनेपर मुक्तात्मा ऊपरको जाता है। तथा जैसे मिट्टी भादिके लेपके भारसे मुक्त होते ही तुंबी जलके अन्दरसे तुरन्त ऊपर आ जाती है, वैसे ही समस्त संग-परिग्रहसे मुक्त हुआ जीव ऊपरको जाता है । और जिस प्रकार दीपककी शिखा वायु वगैरहके निमित्त न मिलनेपर स्वभावसे ऊपरकी ही ओर जाती है, उसी प्रकार मुक्तात्मा भी ऊपरको ही जाता है ।
अनुपमं तत्र सुखमस्तीति कथमवगम्यत इत्याहमुक्तजीवके अनुपम सुखकी सिद्धि करते हैं:
दहेमनोवृत्तिभ्यां भवतः शरीरमानसे दुःखे ।
तदभावात्तदभावे सिद्धं सिद्धस्य सिद्धिसुखम् ॥ २९५॥ टीकाः-देहः शरीरं मनश्च तयोर्वृत्तिवर्त्तनं सद्भाव आत्मनि संश्लेषस्तत्र शरीरसंश्लेषा. च्छरीरं दुःखमुपजायते । मनःसम्बन्धाच्च मानसं दुःखमिष्टवियोगादौ । तस्यच शरीरमनसोरभावे सति तत्कृतस्य दुःखस्याभावः । दुःखाभावे च सिद्धं स्वाभाविकं प्रतिष्ठितमव्याहतं सिद्धिसुखमिति ॥ २९५ ॥
अर्थ-शरीर और मनके सम्बन्धसे शारीरिक और मानसिक दुःख होता है । तथा शरीर और मनका अभाव होनेसे वह दुःख नहीं होता, अतः सिद्धजीवके सिद्धिका सुख सिद्ध ही है ।
भावार्थ-शारीरिक दुःखका कारण शरीर है और मानसिक दुःखका कारण मन है। किन्तु मुक्त जीवके न शरीर ही होता है और न मन ही । अत: दुःखके इन दोनों कारणोंके न होनेसे सिद्धजीवका दोनों प्रकारके दुःख नहीं होते । दुःखके न होनेसे स्वाभाविक मुख सिद्ध ही है। क्योंकि आत्माके सुख गुणका विकार ही दुःख है । अतः विकारके दूर हो जानेपर सुख-गुण स्वाभाविकरूपमें वर्तमान रहता है । तथा सुख और दुःख परस्परमें विरोधी हैं-एकके अभावमें दूसरा अवश्य रहता है । दोनोंका अभाव किसी भी सचेतनमें नहीं हो सकता। अतः मुक्त जीवके दुःखोंसे मुक्त होजानेपर स्वाभाविक सुख रहता है।
यस्तु यतिर्घटमानः सम्यक्त्वज्ञानशीलसम्पन्नः ।
वीयर्मानगृहमानः शक्त्यनुरूपप्रयत्नेन ॥ २९६ ॥
टीका-यतिस्तपस्वी साधुर्घटमानश्चेष्टमानः प्रवचनोक्तसमस्तक्रियानुष्ठायी । सम्यक्त्वेन शंकादिशल्यरहितेन । सम्यग्ज्ञानेन श्रुतादिना । शीलेन च मूलोत्तरगुणरूपेण सम्पन्नः।
१- मानसे, नास्ति-फ० प्रतौ। २- संश्लेषस्तत्रशरीर-' त्रुटितोऽयमंशः-फ० प्रतो ।