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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [एकविंशाधिकारः, मोक्षगमनविधानम् होनेपर फिर कमी उसका नाश नहीं होता। तथा वह सुख अनुपम है; क्योंकि संसारका कोई भी सुख उसके समान नहीं है । तथा वह बाधा रहित भी है क्योंकि उसे प्राप्त करके रोग वगैरहका भय नहीं रहता । मुक्त जीव ऐसे उत्तम सुखको प्राप्त करके क्षायिकसम्यक्त्व, केवलज्ञान और केवल दर्शनरूप स्वभावसे युक्त होते हैं । आशय यह है कि मुक्त अवस्थामें आत्मिक गुणोंका अभाव नहीं हो जाता । किन्तु सुख, ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व आदि स्वाभाविक गुण अपनी चरम सीमाको प्राप्त होकर सदैव प्रकाशमान रहते हैं। केषाअिदभावमात्रं मोक्षस्तन्निराकरणायाहकुछ वादी मोक्षको केवल अभावस्वरूप ही मानते हैं, उनके निराकरण के लिए कहते हैं: मुक्तः सन्नाभावः स्वालक्षण्यात स्वतोऽर्थसिद्धेश्च । भावान्तरसंक्रान्तः सर्वज्ञाज्ञोपदेशाच्च ॥ २९० ॥ टीका-अष्टाभिः कर्मभिर्मुक्त आत्मा चेतनास्वभावो ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणः । तस्य सर्वात्मना निरन्वयो नाश इति दुःसाध्यम् , परिणामित्वात् प्रदीपशिखावत् । ते हि प्रदीपपुद्गलाः कजलाधाकारेण प्रादुःषन्ति, पुनश्च परिणामान्तरेण जायन्त इति प्रत्यक्षप्रमाणसमधिगम्याः । निरन्वयनाशे च जैनेन्द्रात् प्रतिहेतुदृष्टान्तानामसंभव एव । अतःपरिणामित्वात्जीवो ज्ञानदर्शनोपयोगात्मा, न पुनरभावः । स्वलक्षणमुपयोगस्तद्भावः स्वालक्षण्यं तस्मात् स्वालक्षण्यात् । न जातुचिदुपयोगात्मस्वतत्त्वं जहाति जीवः । स्वत एव चार्थाः (र्थः) सिद्धाः (द्वः)। ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावत्वमात्मनो न कुतश्विन्निमित्तादुत्पन्नः । स्वत एवासावनदितादृशोऽर्थः । यद्यपि प्राच्योपरत उपयोगान्तरमुदेति, तथाप्युपयोगसामान्यान्न भिद्यते।ज्ञानस्वभावत्वात्। तथा भावान्तरसंक्रातः, भावो हि भावान्तरत्वेन संक्रामति, न सर्वथोच्छिद्यते द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षः, इतो ग्रामान्तरगतपुरुषादिवत् । इतश्च नाभावो मुक्तः । सर्वज्ञाज्ञोपदेशात् वीतरागाः सर्वज्ञास्तत्प्रणीतागम आज्ञा । तदुपदेशात् सिद्धात्मा ज्ञानदर्शनस्वभावोऽस्तीति व्यवस्थिमिति ॥ २९० ॥ अर्थ-मुक्तजीव अभावरूप नहीं है, क्योंकि जीवका लक्षण उपयोग है तथा अर्थोकी सिद्धी स्वतः ही हुआ करती है। और भाव ही भावान्तररूप होते हैं । सर्वज्ञद्वारा कहे गये आगममें ऐसा ही कहा है। भावार्थ-आठों कर्मोंसे मुक्त आत्मा चैतन्यस्वरूप है। ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग उसका लक्षण है । उस आत्माका निरन्वय नाश दुःसाध्य है । क्योंकि वह दीपककी शिखाकी तरह परिणामी है। दीपककी शिखा काजल आदि रूपसे परिणमन करती है। उसके बाद उस काजलका भी कोर्ड दसरा परिणमन देखा जाता है । यह बात प्रत्यक्ष सिद्ध है । वस्तुका निरन्वय विनाश माननेपर उसकी सिद्धिके लिए हेतु और दृष्टान्तका मिलना असंभव ही है । अतः परिणामी होनेके कारण जीवका स्वरूप ज्ञानोपयोग १-त्रुटितोऽयमंशः फ. प्रतौ।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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