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कारिका २८८२८९-२९० ]
प्रशमरतिप्रकरणम्
औदारिक, तैजस और कार्मणशरीरसे मुक्त हुआ जीव ऊर्ध्वगमन करता है। यह ऊर्ध्वगमन ऋजुश्रेणिगतिसे होता है । जिस स्थानपर जीव कर्म-बन्धनसे मुक्त होता है, वहाँसे लेकर लोकके अन्त भागतक आकाशके प्रदेशोंकी जो सीधी पंक्ति होती है, उसीके अनुसार मोरहित सीधा गमन करता है । और बिना किसी रुकावटके एकसमयमें ही लोकके अग्रभागको प्राप्त हो जाता है । इसी लिए इस गतिको स्पर्श रहित कहा है । क्योंकि जिस समयमें ऊर्ध्वगमन करता है, उसी समयमें अपने गन्तव्य-स्थानतक पहुँच जाता है, समयान्तरका स्पर्श नहीं करता है । तथा जिस प्रदेश-पंक्तिमें गमन करता है, उससे अन्य प्रदेश पंक्तिका स्पर्श नहीं करता है । उसीमें गमन करता हुआ लोकके अग्र भागतक चला जाता है । वहाँ सिद्धिक्षेत्र है। पूरी तरहसे कर्मोंके नाश हो जानेको सिद्धि कहते हैं और उसके क्षेत्रको सिद्धिक्षेत्र कहते हैं। सिद्धजीव इसी सिद्धिक्षेत्रमें रहते हैं। लोकके अग्र भागमें ईषत् प्राग्भार नामकी एक पृथिवी है । वही सिद्धभूमि है। उससे एक योजन ऊपर जानेपर लोकका अन्त होता है । यह पृथ्वी ऊर्ध्वमुख छत्रके आकार है । इसकी लम्बाई और चौड़ाई ४५ लाख योजन है तथा बाहुल्य मध्यमें आठ योजन है और दोनों ओर घटते-घटते अन्तमें अंगुलके असंख्यातवें भाग है । इस पृथ्वीके ऊपरसे तलसे लेकर लोकान्ततक जो एक योजन प्रमाण क्षेत्र है, उस क्षेत्रमें भी जो सबसे ऊपरका एक . कोस क्षेत्र है, उस एक कोस क्षेत्रमें भी उसका जो ऊपरका छट्ठा भाग है, जिसका प्रमाण ३३३३ धनुष है, अपने प्रमाण आकाशको ही सिद्विक्षत्र कहते हैं । जन्म, जरा, मरण और रोगसे मुक्त हुए सिद्धजीव मल रहित इस सिद्धिक्षेत्रमें ही जाकर ठहरते हैं, तथा ज्ञानोपयोगमें वर्तमान रहते हुए भी इस . सिद्धस्थानको प्राप्त होते हैं, दर्शनोपयोगमें वर्तमान रहते हुए नहीं। क्योंकि आगममें कहते हैं कि साकारोपयोगीको ही समस्त लब्धियाँ प्राप्त होती हैं।
सादिकमनन्तमनुपममव्याबाँधसुखमुत्तमं प्राप्तः ।
केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनात्मा भवति मुक्तः ॥ २८९ ॥
टीका-सहादिना सादिकं सिद्धत्वपर्यायवत् । अनन्तमपर्यवसानम् । अविद्यमानोपमौनमनुपम् । अविद्यमानव्याबाधमन्याबाधम् । रोगान्तकादिद्वन्द्वरहितम् । एवंविधं सुखं प्राप्तः । केवलं क्षायिकं सम्यक्त्वम् । केवलं ज्ञानम् । केवलं दर्शनम् । केवलमित्यसहायं सम्यक्त्वं पुद्गलरहितम् । एतान्यात्मा यस्य स्वभावः स एवंरूपस्तत्र मुक्त इति ॥ २८९ ॥
अर्थ-सादि, अनन्त, अनुपम और अव्याबाध उत्तम सुखको प्राप्त होते हुए केवल सम्यक्त्व केवलज्ञान, केवलदर्शन स्वरूपी आत्मा मुक्त होता है।
__ भावार्थ-मुक्तजीवको जो सुख प्राप्त होता है, वह सिद्धत्वपर्यायकी तरह ही सादि और अनन्त है । अर्थात् जिस प्रकार सिद्धत्वपर्याय आदिसहित और अन्तरहित है। एक बार इस सुखके प्राप्त
१- अविग्रहा जीवस्य'-तत्वार्थसूत्र अ० २ मू० २८ । २-' एक समयाविग्रहा।' तत्व यंत्रअ०२मू०३०। श्रीजिनभद्रक्षमाश्रमणकृत बि. शे. भा. गा. ३७.७। ३-वि. शे. भा. गा. ३५२०, श्रीभद्रबाहस्वामिकृत आव०नि० ९६० से।।
४-आ. नि., गा. ९७१। ५-ऋमिक उपयोगद्यवादियों के मतसे, क्योंकि श्वेताम्बर क्रमिक उपयोगद्वयवादी हैं। श्रीभद्रबाहुस्वामिकृत आ. नि. गा. ९७९। ६-मव्वबोध-फ०।