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कारिका २७९ । प्रशमरतिप्रकरणम्
१०३ ततो वाग्योगं निरुणद्धि । तन्निरूपणायाहमनोयोगके बाद वाग्योगका निरोध करता है । अतः उसका निरूपण करते हैं:
द्वीन्द्रियसाधारणयोर्वागुच्छासावधो जयति यद्वत् ।
पनकस्य काययोगं जघन्यपर्याप्तकस्याधः ॥ २७९ ॥
टीका-द्वीन्द्रियस्य प्रथमसमयपर्याप्तकस्य वाक्पर्याप्तिसरणं यत्तद् विघटयति । तस्य जघन्यवाग्योगो यः साधारणजीवस्य च प्रथमसमयपर्याप्तकस्य यदुच्छ्रासनिःश्वासपर्याप्तिकरणं ताभ्यां वागुच्छासौ अधः कृत्वा तावन्निरुणयसंख्येयगुणहान्या, यावत् समस्तवाग्योगो निरुद्ध उच्छासनिःश्वासपर्याप्तिकरणं च । तद्वदिति यथा मनो निरुणद्धि तद्वद्वागुच्छासावपि निरुणद्धीत्यर्थः । तत्र मनोवाचोर्निरुद्धयोः काययोगनिरोधं करोति । पनक उल्लिजीवस्तस्य प्रथमसमयपर्याप्तकस्य यः काययोगो जधन्यस्ततोऽप्यधोऽसंख्येयगुणहान्या निरावरणवीर्यत्वात् सकलं काययोगं निरुणद्धि ॥ २७९ ॥
अर्थ-द्वीन्द्रियजीवके जो वचनयोग होता है और साधारणवनस्पतिजीवके जो श्वासो. छास होता है मनोयोगकी ही तरह उससे असंख्यातगुणे हीन वचनयोग और श्वासोच्छ्रासका निरोध करते करते समस्त वचनयोग और श्वासोच्छ्वासका निरोध करता है। उसके बाद जघन्यपर्याप्तक पनक जीवके जो काययोग होता है, उससे असंख्यातगुणे हीन काययोगका निरोध करते-करते समस्त काययोगका निरोध करता है।
भावार्थ-जिस प्रकार मनोयोगका निरोध करता है, उसी प्रकार वचनयोग और श्वासोच्छ्वासका भी निरोध करता है । अर्थात् द्वीन्द्रिय पर्याप्त कजीवके प्रथम समयमें जो जघन्य वचनयोग होता है और पर्याप्तक साधारणजीवके प्रथम समयमें जो श्वासोच्छ्वास होता है, उससे असंख्यातगुणे हीन असंख्यात गुणे वचनयोग और श्वासोच्छ्वासको प्रतिसमय तबतक रोकता है जबतक समस्त वचनयोग और श्वासोच्छ्वास पर्याप्तिकरणका निरोध नहीं हो जाता ।
मनोयोग और वचनयोगके रुकनेपर काययोगका निरोध करता है । पर्याप्त पनक इल्लिजीवके प्रथम समयमें जो जघन्य काययोग होता है, उससे भी असंख्यातगुणे हीन काययोगका प्रतिसमय निरोध करता है । इस प्रकार निरोध करते-करते सकल काययोगका निरोध करता है।
काययोगनिरोधकाले चकाययोगके निरोधके समय जो कुछ होता है, उसे बतलाते हैं:
१-समस्तावा-ब०। प्र०२५