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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
[ विंशाधिकारः, योगनिरोधः समाधान - नहीं । क्योंकि केवलीके वचनमें ' स्यात् ' इत्यादि रूपसे अनुभयरूप वचनका सद्भाव पाया जाता है । इसलिए केवलीकी ध्वनि अनक्षरात्मक है यह बात असिद्ध है ।
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शङ्का -- केवलकी ध्वनिको साक्षर मान लेनेपर उनके वचन प्रतिनियत एक भाषारूप होंगे, अशेषभाषारूप नहीं हो सकेंगे ?
समाधान — नहीं । क्योंकि क्रम विशिष्ट, वर्णात्मक, अनेक पंक्तियोंके समुच्चयरूप और सर्व श्रोताओंमें प्रवृत्त होनेवाली ऐसी केवलीकी ध्वनि सम्पूर्ण भाषारूप होती है, ऐसा मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है ।
-जब कि वह अनेक भाषारूप हैं तो उसे ध्वनिरूप कैसे माना जा सकता है ?
शङ्का
समाधान — नहीं । क्योंकि केवलीके वचन इसी भाषारूप ही हैं, ऐसा निर्देश नहीं किया जा सकता है । इसलिए उनके वचन ध्वनिरूप हैं यह बात सिद्ध हो जाती है ।
शङ्का – केवली के अतीन्द्रियज्ञान होता है, इसलिए उनके मन नहीं पाया जाता है ? समाधान -- नहीं। क्योंकि उनके द्रव्यमनका सद्भाव पाया जाता है ।
शङ्का – केवलीके द्रव्यमनका सद्भाव रहा आवे, परन्तु वहाँ पर उसका कार्य नहीं पाया जाता है ?
समाधान - द्रव्य मनके कार्यरूप उपयोगात्यक क्षायोपशमिकज्ञानका अभाव भले ही रहा आ; परन्तु द्रव्यमनके उत्पन्न करनेमें प्रयत्न तो पाया जाता है । क्योंकि द्रव्यमनकी वर्गणाओंके लाने के लिए होनेवाले प्रयत्न में कोई प्रतिबन्धक कारण नहीं पाया जाता है । इसलिए यह सिद्ध हुआ कि उस मनके निमित्तसे जो आत्माका परिस्पन्दरूप प्रयत्न होता है उसे मनोयोग कहते हैं ।
भी
शङ्का - केवली के द्रव्यमनको उत्पन्न करनेमें प्रयत्न विद्यमान रहते हुए क्यों नहीं करता है ?
वह अपने कार्यको
समाधान- नहीं | क्योंकि केवलीके मानसिकज्ञान के सहकारी कारणरूप क्षयोपशमका अभाव है, इसलिए उनके मनोनिमित्तक ज्ञान नहीं होता हैं ।
शङ्का – जब केवलीके यथार्थमें अर्थात् क्षायोपशमिकमन नहीं पाया जाता है तो उससे सत्य और अनुभय— इन दो प्रकारके वचनों की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ?
समाधान- नहीं। क्योंकि उपचारसे मनके द्वारा उन दोनों प्रकारके वचनोंकी उत्पत्तिका विधान किया गया है ।