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________________ १८८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [एकोनविंशाधिकारः, समुद्धात यदि एक जगह रख दिया जावे तो उसे सूखनेमें बहुत समय लगता है, किन्तु यदि उसे फैला दिया जावे तो वह जल्दी ही सूख जाता है, उसी प्रकार संकुचित दशामें जो कर्मरज आत्मासे पृथक् होनेमें अधिक समय लेती है, वही समुद्धात दशामें आत्माके प्रदेशोंके फैलाये जानेपर कम समयमें पृथक् होनेके योग्य हो जाती है। संहरति पश्चमेत्वन्तराणि मन्थानमथ पुनः षष्ठे । सप्तमके तु कपाटं संहरति ततोष्टमे दण्डम् ॥ २७५ ॥ टीका-एवं चतुर्भिः समयैलौक क्रमेण व्याप्य चतुभिरेव समयैर्विपरीतं संहरति पञ्चमे समये मन्थानान्तराण्युपसंहरति । षष्ठे समये मन्थानं संहरति । सप्तमे समये कपाटम् । अष्टमे समये दण्डमुपसंहृत्य शरीरस्थ एव भवति ॥ २७५ ॥ ___अर्थ-पाँचवें समयमें अन्तरालके प्रदेशोंको संकोचता है । छटे समयमें मन्थानको संकोचता है । सातवें समयमें कपाटको संकोचता है और आठवें समयमें दण्डको संकोचता है । ___ भावार्थ-इस प्रकार उक्त रीतिसे चार समयमें क्रमसे लोकको व्याप्त करके चार ही समयमें उससे विपरीत क्रमसे प्रदेशोंका उपसंहार करता है। अर्थात् पाँचवें समयमें मंथानीके अन्तरालोंमें जो आत्म-प्रदेश हैं; उनका संकोच करता है । और इस प्रकार लोकव्यापीसे पुनः मथानीके आकार करता है। छ? समयमें पूर्व-पश्चिमके प्रदेशोंका संहार करके मंथानीसे पुनः कपाटके आकार करता है । और सातवें समयमें उत्तर-दक्षिणके प्रदेशोंका संहार करके कपाटसे दण्डके आकार करता है । और आठवें समयमें दण्डका भी उपसंहार करके पहलेकी तरह अपने शरीरमें ही स्थित हो जाता है । इस प्रकार चार समयमें दण्ड, कपाट, मंथानी और लोकव्यापी तथा चार समयमें मंथानी, कपाट दण्ड और अपने शरीरमें स्थित होता है । इस प्रकार केवली-समुद्धातमें आठ समय लगते हैं। अथ कस्मिन् समये को योगः समुद्घातकाले भवतीत्याहसमुद्धातमें किस समय कौन योग होता है ? यह बतलाते हैं: औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः । मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तमषष्ठद्वितीयेषु ॥ २७६ ॥ प्रथमेऽष्टमे च समये औदारिक एव योगो भवति शरीरस्थत्वात् । कपाटोपसंहरणे सप्तमः । मन्थसंहरणे षष्ठः । कपाटकरणे द्वितीयः । एतेष त्रिष्वपि समयेषु कार्मणव्यतिमिश्र औदारिक योगो भवति। “कार्मण शरीरयोगी चतुर्थक पञ्चमे तृतीये च । समयत्रयेऽपि १-चतुरेव-फ.। २-अहारिक प्र-फ.। ३-अदारिक एव-फ.। ४-कारिकेयं मुद्रितकारिका संख्याक्रमे नास्ति।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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