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________________ कारिका २७२-२७३-२७४ ] प्रशमरतिप्रकरणम् १८७ भावार्थ-जिनकवलीके आयुकर्मकी स्थिति कम होती है और शेष तीनों कर्मोंकी स्थितिअधिक होती है तो वह वेदनीयादि कर्मोंकी स्थितिको आयुकर्मकी स्थितिके बरावर करनेके लिए समुद्धात करते हैं। उत्कृष्ट गमनको समुद्धात कहते हैं । इसमें आत्माके प्रदेश शरीरके बाहर फैलकर समस्त लोकाकाशमें व्याप्त हो जाते हैं । अतः यह उत्कृष्ट गमन कहलाता है। इससे भी उत्कृष्ट अन्य कोई गमन नहीं होता, क्योंकि लोकसे बाहर आत्माका गमन नहीं होता। तस्य चायं विधिरुच्यतेसमुद्धातकी विधि बतलाते हैं। दण्डं प्रथमे समये कपाटमथ चोत्तरे तथा समये । मन्थानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥२७४ ॥ टीका-स्वशरीरप्रमाणदण्डबाहुल्येनोर्ध्वमधश्चात्मप्रदेशान् विक्षिपत्यालोकान्तात् । तत्र प्रथमे समये दण्डम् । द्वितीयसमये तु कपाटीकरोति दक्षिणोत्तरतो विस्तारयत्यालोकान्तात् । एवं तृतीयसमये तदेव कपाट मन्थानं करोति पूर्वोत्तरयोविस्तारयत्यालोकान्तात् । एवं चतुर्थसमये मन्थानान्तराणि पूरयित्वा चतुर्थे तु लोकव्यापी भवति । एवमात्मप्रदेशेषु निरावरणेन वीर्येण विरलितेषु कर्म वेद्यादित्रयमायुषा समं करोति । आयुष्कं तु नापवर्तते । अनपवर्तित्वादेवेत्युक्तम् । आत्मप्रदेशविस्तारणाच्च तवद्यादिकर्म अतिरिक्तं क्षयं गच्छदायुषा सह समीकरोति ॥ २७४॥ अर्थ-प्रथम समयमें दण्ड, दूसरे समयमै कपाट, तीसरे समयमें मंथानी, और चौथे समयमें लोकव्यापी होता है। . भावार्थ-पहले समयमें अपने शरीरके बराबर मोटे दण्डके आकार ऊपर और नीचे लोकके अन्ततक आत्माके प्रदेशोंको विस्तारता है। दूसरे समयमें उन्हें कपाटके आकार करता है अर्थात् दक्षिणउत्तर दिशामें लोकके अन्ततक फैलाता है । तीसरे समयमें उस कपाटको मथानीके आकार करता है, अर्थात् पूर्व-पश्चिम दिशामें लोकके अन्ततक फैलाता हैं। तथा चौथे समयमें मन्यानीके जो अन्तराल खाली रह जाता हैं, उन्हें पूरकर लोकव्यापी हो जाता है। इस प्रकार अपने निरावरण अनन्तवीर्यके द्वारा आत्माके प्रदेशोंका फैलानेपर वेदनीय आदि तीन कर्मोंको आयुकर्मके बरावर करता है किन्तु आयुकर्मका अपवर्तन नहीं करता। क्योंकि चरमशरीरीकी आयुका घात नहीं हो सकता । अतः आत्माके प्रदेशोंको फैलानेसे अतिरिक्त कर्मोंका क्षयहोकर वेदनीय, नाम और गोत्रकर्म भी आयुकर्मके बरावर ही हो जाते हैं । इस सम्बन्धमें गीले वस्त्रका दृष्टान्त दिया जाता है । जिस प्रकार गीले वस्त्रको इकट्ठा करके १-तत्र प्रथमसमये तु दण्डं कपाटीकरोति-ब, । २-समये तु दण्ड कपा-फ, । ३-चत्वार्यपि फ, ब। ४-तद्वद्यादि कर्मसु-फ० ब० ॥५-नास्तीदं-ब० पुस्तके ।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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