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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [एकादशाऽधिकारः, जीवादिनवतत्त्वानि है । अतः स्थितिकी अपेक्षा अनन्त भेद हैं । एक जीवकी अवगाहना लोकके असंख्यातवें भागके बराबर है । शरीरके छोटे-बड़े होनेके कारण प्रदेशोंकी हीनता और अधिकता होनेसे अवगाहनाकी अपेक्षा भी बहुतसे भेद होते हैं । तथा ज्ञान और दर्शनको अपेक्षासे भी अनन्त भेद होते हैं, क्योंकि सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तकके ज्ञानसे लेकर केवलज्ञानपर्यन्त ज्ञानके अनन्त भेद हैं । इस प्रकार एक एक नारकादि भेदके संभव अनन्त भेद होते हैं।
जीवलक्षणामधित्सयाहजीवका लक्षण कहते हैं:
सामान्यं खलु लक्षणमुपयोगो भवति सर्वजीवानाम् ।
साकारोऽनाकारश्च सोऽष्टभेदश्चतुर्धा तु ॥ १९४ ॥
टीका-सामान्यलक्षणं सर्वजीवानामुपयोगश्चेतना ज्ञानदर्शनव्यापारः । खलु शब्दोऽ वघारणे । उपयोग एव सामान्यलक्षणम् । सर्वजीवानामिति । तमुपयोगं विस्पष्टयति-- साकारोपयोगः आकारो विकल्पः सहाकारेण साकारः सविकल्पो ज्ञानन्यापारः । अनाकारो दर्शनोपयोगः । सामान्यग्रहणं निर्विकल्पमित्यर्थः । ज्ञानोपयोगोऽष्टभेदः-मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलमत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभंगज्ञानाख्यः । दर्शनोपयोगश्चतुर्धा-चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनाख्यः ॥ १९४ ॥
अर्थ-सब जीवोंका सामान्य लक्षण उपयोग ही है । वह दो प्रकारका होता है—साकार और अनाकार । साकारउपयोगके आठ भेद हैं, और अनाकारउपयोगके चार भेद हैं ।
भावार्थ-जानने-देखने रूप चैतन्य-व्यापारको उपयोग कहते हैं। यह उपयोग ही सब जीवोंका सामान्य लक्षण है। उसके दो भेद हैं—साकारउपयोग और अनाकारउपयोग । 'यह घट है' इस प्रकारके विकल्पको आकार कहते हैं और सविकल्पक ज्ञान-व्यापारको साकारोपयोग कहते हैं । तथा निर्विकल्पक दर्शन-व्यापारको अनाकारउपयोग कहते हैं । ज्ञानोपयोगके आठ भेद हैं । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगज्ञान । दर्शनोपयोगके चार भेद हैं:-चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ।
तानाष्टौ भेदांश्चतुरश्च विस्तरतः कथयतिउन आठ और चार भेदोंको विस्तारसे कहते हैं:
ज्ञानाऽज्ञाने पञ्चत्रिविकल्पे सोऽष्टधा तु साकारः ।
चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदग्विषयस्त्वनाकारः ॥ १९५ ।। १- आकारोऽयं विकल्पः स्यात् ।'