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________________ १२२ रायचन्द्रजेनशास्त्रमालायाम् [नवमोऽधिकारः, धर्मः शुक् शोको दुःखं शारीरं मानसं चेति तल्लुनाति विच्छेदयतीति शुक्लम् । पृषोदरादिपाठाच्च संस्कारः । तच्चतुर्विधम्-पृथक्त्ववितर्क सविचारम् , एकत्ववितर्कमविचारम्, सूक्ष्मक्रियम प्रतिपाति, व्युपरतक्रियमनुवर्तनम् । व्यापृतभावो वैयावृत्यम् , आचार्योपाध्यायादीनां भक्त पानवस्त्रपात्रादिना दशानामुपग्रह, शरीरशुश्रूषा चेति । विनीयते येनाष्टविधं कर्म स विनयः ज्ञानदर्शनचारित्रोपचारभेदः । तत्रोपचारविनयो विनयाहेषु अभ्युत्थानमासदानाञ्जलिप्रग्रहः दण्डकग्रहणचरणप्रक्षालनमर्दनादि । व्युत्सर्गोऽतिरिक्तोपकरणसंसक्तभक्तपानादेरुज्झनम् । अभ्यन्तरस्य च मिथ्यादर्शनकषायादेरपाकरणम् । स्वाध्यायः पञ्चधा-वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नायः, धर्मोपदेशश्च। तत्र वाचना आलापकदानम्, संजातसन्देहपृच्छनंपृच्छना, अनुप्रेक्षा मनसा परिवर्तनमागमस्य, आम्नाय आत्मानुयोगकथनम् , धर्मोपदेश आक्षेपणी विक्षेपणी संवेदनी निवेदनी चेति कथा धर्मोपदेशः। एवमम्यन्तरमपि षोढा तपः ॥ १७६ ॥ ___ अर्थ–प्रायश्चित्त, ध्यान, वैयावृत्य, विनय, उत्सर्ग और स्वाध्याय इस प्रकार आभ्यन्तरतप छह प्रकारका होता है। भावार्थ-किये हुए दोषोंको दूर करनेके लिए जो आलोचना आदि की जाती है । उसे प्रायश्चित्त कहते हैं । अन्तर्मुहूर्त के लिए एक विषयमें मनके लगानेको ध्यान कहते हैं। उसके चार भेद हैं--आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । आर्तध्यानके भी चार भेद हैं-(१) अप्रिय वस्तुका सम्बन्ध होनेपर उसके वियोगके लिए चिन्ता करना, (२) सिरदर्द वगरेहकी पीडाको दूर करनेके लिए चिन्ता करना, (३) प्रिय वस्तुका वियोग होनेपर उसके संयोगके लिए चिन्ता करना और (४) चन्दन खस वगैरहके लगानेसे उत्पन्न हुए सुखका वियोग न होनेके लिए चिन्ता करना। रौद्रध्यानके भी चार भेद हैं--(१) हिंसामें आनन्द अनुभव करना, (२) झूठ बोलनेमें आनन्द अनुभव करना, (३) चोरी करनेमें आनन्द अनुभव करना और ( ४ ) परिग्रह-संचयमें आनन्द अनुभव करना । ये दोनों ही ध्यान छोड़नेके योग्य हैं और धर्म्य तथा शुक्लध्यान करनेके योग्य हैं। धर्मयुक्त ध्यानको धर्मध्यान कहते हैं। उसके भी चार भेद हैं--आज्ञाविचय, अपायविचय विपाकविचय और संस्थानविचय ।। ___जो ध्यान शारीरिक और मानसिकदुःखका छेदन करता है, उसे शुक्लध्यान कहते हैं, उसके भी चार भेद हैं :-(१) पृथक्त्ववितर्कविचार ( २ ) एकत्ववितर्कअविचार, (३) सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, और ( ४ ) व्युपरतक्रियानिवृत्ति । आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, गण, कुल, संघ, रोगी, साधु और मनोज्ञ इन दस प्रकारके साधुओंकी सेवा-शुसूषा करनेको वैयावृत्य कहते हैं । ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचारके भेदसे विनयके १-तत्त्वार्थसूत्र आदिमें इसके स्थानपर निदान नामका भेद किया है। निदानका अर्थ होता है-आगामी सुख प्राप्ति के लिए चिन्ता करना।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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