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________________ कारिका १३७-१३८ ] प्रशमरतिप्रकरणम् सोरठ ( काठियावाड़) वगैरह रूखे प्रदेशमें पेटका छठा भाग खाली रखकर भोजन करना चाहिए । शीतप्रधान काश्मीर वगैरहमें इतना भोजन करना चाहिए कि वह सुखपूर्वक हजम हो सके । तथा भोजनकी मात्राका भी ध्यान रखना जरूरी है, परिमित आहार भी किसी किसीको हजम नहीं होता । अतः आहारकी मात्रा इतनी होनी चाहिए, जिसका सरलतासे पाचन हो सके । तथा भोजन ग्रहण करते समय अपने स्वभावका भी ध्यान रखना चाहिए । किसीको अत्यन्त चिक्कण भोजन ही अनुकूल पड़ता है, और किसीको सूखा भोजन अनुकूल पड़ता है तथा किसीको न अधिक चिक्कण और न अधिक सूखा भोजन अनुकूल पड़ता है । विरुद्ध वस्तुओं का संयोग भी किसीको अनुकूल पड़ता है और किसीको प्रतिकूल पड़ता है । मैंस का घी-दूध भारी होता है और गौका घी-दूध हल्का होता है । अतः भोजनके समय भोजनके भारीपन और हल्केपनका भी ध्यान रखना चाहिए तथा अपनी शक्ति वगैरहका भी ध्यान रखना चाहिए कि मुझे वात वगैरहकी कोई व्याधि तो नहीं है। उक्त सब बातोंका ध्यान रखकर जो भोजन करता है, उसे कभी ओषधि लनेकी आवश्यकता नहीं पड़ती; क्योंकि वह कभी बीमार नहीं पड़ता। ननु च पिण्डप्रतिश्रयवस्त्रपात्रादि परिगृह्णन् कथमकिञ्चनः स्यात्साधुरपरिग्रहो भवेत् ? इत्याह शंका-भोजन, आश्रय, वस्त्र, पात्र वगैरह ग्रहण करनेवाले साधुको अपरिग्रही कैसे कहा जा सकता है ? इसका समाधान करते हैं: पिण्डः शय्यावस्त्रैषणादि पात्रैषणादि यच्चान्यत् । कल्प्याकल्प्यं सद्धर्मदेहरक्षानिमित्तोक्तम् ॥ १३८ ॥ टीका-पिण्डः ' इति आहारश्चतुर्विधोऽशनीयादिः । शय्या प्रतिश्रयः । वस्त्रं पात्रबन्धचोलपट्टकमुखवस्त्रिकादि । आदिग्रहणात् वस्त्रग्रहणे यो विधिरुक्तः स सर्वः परिगृह्यते । *पात्रग्रहणात् प्रतिग्रहकमात्रकग्रहणम् । इहाप्यादिग्रहणात् पात्रैषणाविधौ यो विधिरुक्तः तस्थापि ग्रहणम् । ' यच्चान्यत् ' इति औपग्रहिकं दण्डकादि संगृहीतं कल्पनीयं तावदुत्सर्गतः सद्धर्मरक्षानिमित्तोक्तम् । देहः शरीरम् , सद्धर्मो दशलक्षणकः क्षमादिः। शरीररक्षणे सति सद्धर्मरक्षणं, तन्मूलत्वाद्धर्मानुष्ठानस्य । शरीरकं हि संयमानुष्ठानार्थ पोष्यते क्षमादेधर्मस्याधारस्तदिति । कल्पनीयस्य चालाभे लघुतरदोषासेवनं प्राग्वदाधाकर्मग्रहणम् । एवं शय्यावस्त्रपात्रदण्डकादिष्वपि योज्यम् । सर्वे च विषयाः सापवादा मैथुनवय॑म् । एवं सद्धर्मरक्षार्थं देहरक्षणार्थ च सर्वमुक्तम् । न चासौ परिग्रहः तत्रामूछितत्वात् । 'मूर्छा परिग्रहः ' इति लक्षणादिति ॥१३८॥ अर्थ-आहार, शय्या, विधिपूर्वक वस्त्र और पात्र-एषणा तथा अन्य जो ग्रहण करने योग्य और ग्रहण न करने योग्यका विधान किया है, वह सब सभीचीन धर्म और शरीरको रक्षाके निमित्तसे कहा है । १-नु पि-फ०, ब०, । २-मपि कि-फ०, ब०, १३-शनादि-फ०, ब०। ४-क्तः समर्थः-१०, फ०, ब०।५-णात् पात्रं प्रतिग्रहकं ग्रह-प०।६-कद-प०,। ७-दिन-प०।८-र्मस्य रक्षार्थ च-फ०,०।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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