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प्रो. हरमन याकोबी को उद्धृत करते हुए डॉ. हीरालाल जैन और डॉ. ए.एन.उपाध्ये ने आचार्य हरिभद्रसूरि का अनुमानित समय ७५० ईस्वी दिया है। यह अनुमान ही हमें इस अनुमान तक पहुँचाता है कि ध्यानशतक के रचयिता का समय ७५० ईस्वी के अधिक नहीं तो सौ-दो सौ साल पहले का ज़रूर रहा होगा। यह वह समय है जब प्राकृत भाषा लोक व्यवहार की भाषा थी। इसी में जिनभद्र क्षमाश्रमण ने ध्यानशतक की रचना की।
__ध्यानशतक ध्यान का सम्पूर्ण और सर्वांग विमर्श है। ध्यान के सभी प्रकारों - आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल की विशेषताओं, उनसे होने वाले हानिलाभों, उनके महत्त्व, उनके विधि-विधान आदि का यह विधिवत् विवेचन है। इसमें विषय को बेहद तरतीब के साथ विवेचित/विश्लेषित किया गया है। अगर हम इसे इस विषय के अन्यान्य ग्रन्थों की तुलना में देखें तो इसके विवेचन की क्रमबद्धता के महत्त्व को आसानी से समझ सकेंगे। ध्यानशतक पढ़ते हुए लगता है जैसे हम किसी कक्षा में किसी निष्णात अध्यापक से यह विषय पढ़ रहे हैं। उसके रचयिता आचार्य ने उचित ही अपनी रचना को ध्यानाध्ययन (गाथा-१) कहा है। आचार्य हरिभद्र सूरि ने भी ध्यानाध्ययनापरनामधेयम् कहकर इसकी पुष्टि की है। हरिभद्र सूरि ने ही इस कृति को ध्यानशतक जैसा सरल नाम दिया। गाथाओं की कुल संख्या शतक के पार होने के कारण यह नाम सटीक भी रहा और यह कृति ध्यानशतक के नाम से ही प्रसिद्ध और लोकप्रिय हुई।
ध्यान के नियम क़ायदों को जानकर, उसकी सैद्धांतिकी का अनुसरण करके निश्चय ही उसके रास्ते पर आगे बढ़ने में मदद मिलती है। लेकिन अगर इस सबके बिना आगे बढ़ना सम्भव हो तो इस सबको छोड़ा भी जा सकता है। ट्रेन अगर गन्तव्य पर पहुँच जाये तो ट्रेन में बैठा रहना भी अकारथ है। ध्यानशतक की ३८, ३६, ४०, ४१ आदि गाथाओं में आचार्य रचनाकार हमें निष्कर्षों के इसी मक़ाम पर लाकर छोड़ते हैं।
___ प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश के जैन आगम ग्रन्थों/जैन शास्त्रों के अपने हिन्दी अनुवादों में मैं दो ध्येय वाक्यों को लेकर चला हूँ- मूल रचना के साथ न्याय किया जाय और अनुवाद ऐसी प्रांजल भाषाशैली में हो कि वह आसानी से सम्प्रेषित हो सके। यह कोशिश भी मैंने की है कि अनुवाद में अपना तथाकथित ज्ञान न