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प्रस्तावना
ध्यान पर उपलब्ध प्राचीन ग्रन्थों में ध्यानशतक का विशेष स्थान है। अपनी प्राचीनता, अपनी युगीन प्राकृत भाषा, विषय के व्यवस्थित प्रस्तुतिकरण और विमर्श के कारण यह ग्रन्थ सदैव अध्येताओं को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है।
प्राय: सभी जैन आचार्य रचनाकार स्वयं के प्रति मोह से ऐसे मुक्त हैं ि अपनी रचना में वे अपने बारे में कुछ भी जानकारी नहीं देते । अन्य स्रोतों से ही उनके बारे में थोड़ी बहुत जानकारी मिल पाती है। लेकिन ध्यानशतक के रचनाकार आचार्य के बारे में अन्य स्रोत भी एकदम खामोश हैं। उनके जन्मवर्ष, जन्मस्थान, माता-पिता, जीवन काल, उनकी अन्य कृतियों आदि की तो छोड़िए उनके नाम के बारे में भी हमारे पास कोई प्रमाणसंगत जानकारी नहीं है। किसी परवर्ती रचनाकार/ विमर्शकार अथवा भाष्यकार ने भी ध्यानशतक के रचयिता के नाम का कोई संकेत नहीं दिया है। अगर षड्दर्शन समुच्चय के यशस्वी लेखक बहुमुखी प्रतिभा के धनी जैनाचार्य हरिभद्रसूरि का ध्यानशतक पर लिखा गया भाष्य उपलब्ध नहीं होता तो हम ध्यानशतक के अस्तित्व से ही कदाचित् अपरिचित रहे आते । उनके भाष्य से हम इस कृति तक तो पहुँचते हैं पर इसके कृतिकार के नाम तक फिर भी नहीं पहुँचते ।
परम्परागत मान्यता है कि ध्यानशतक के रचनाकार का नाम जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण था । विशेषावश्यक भाष्य, जीतकल्पभाष्य आदि उनकी अन्य कृतियाँ हैं। इन अन्य कृतियों में भी उन्होंने अपना नाम नहीं दिया है। ध्यानशतक के कुछ संस्करणों में कदाचित् बाद में किसी के द्वारा जोड़ी गई १०६वीं गाथा भी मिलती है जिसमें इस ग्रन्थ की गाथा संख्या का निर्देश करते हुए इसे जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की रचना कहा गया है
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पंच्चतुरेण गाढा सएण झाणस्स जं समक्खायं
जिनभद्द खमासमणेहिं कम्मविसोही करणं जइणो ।
(यति की कर्मशुद्धि करनेवाले इस ध्यानाध्ययन को जिनभद्र क्षमाश्रमण ने एक सौ पाँच गाथाओं में निबद्ध किया है)