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बघारूँ, अपनी ओर से कोई जोडजाड़न करूँ। यह जरूरी सावधानी न बरती जाय तो अच्छी खासी सरल मूल रचना भी पेचीदा लग सकती है। हमारे आगम ग्रन्थ
और शास्त्र निहायत सरल और सुलझे हुए हैं। लेकिन उनके ज़्यादातर अनुवादों ने उनकी अगमता और अपठनीयता की छवि निर्मित कर रखी है। कदाचित् इसीलिए हमने उन्हें पूजा के सिंहासन पर तो विराजमान किया, स्वाध्याय की चौकी पर नहीं रखा। मेरी कामना है कि जैन शास्त्र हमारी शिरोधार्यता के ही नहीं हमारे स्वाध्याय और अध्ययन के भी विषय बनें ताकि वे हमारे जीवन में उतर सकें।
ध्यानशतक पद्य के माध्यम के बावजूद कविता नहीं है। वह एक विषय विशेष का अध्ययन है। इसके लिए गद्य का माध्यम ज़्यादा उपयुक्त सिद्ध हुआ होता। लेकिन गद्य का प्रचलन न होने के कारण ध्यानशतककार को पद्य में विषय का विवेचन करना पड़ा। उन दिनों यह मजबूरी सभी विषयों के तमाम रचनाकारों की थी। इस मजबूरी के चलते अर्थ को खूब दबा-दबा कर छन्द में भरा जाता था, पारिभाषिक शब्दों को अधिक प्रयोग में लाया जाता था लेकिन कभी-कभीभरती के शब्दों से छन्द की मात्रिक/वर्णिक भरपाई भी की जाती थी। पारिभाषिक शब्दों का खुलासा अनुवाद के साथ करते हुए चलना आचार्य के मन्तव्यों का जस का तस निर्बाध सम्प्रेषण करने में दिक्कत खड़ी करता। अनुवाद को बार-बार प्रतीक्षा में बना रहना पड़ता। उसे स्थगित रहना पड़ता। इसलिए उनका खुलासा परिशिष्ट में किया गया है। अब पाठक अनुवाद के साथ क़दम से कदम मिलाते हुए चल सकेंगे और जरूरी होने पर परिशिष्ट का सहारा ले सकेंगे। जहाँ तक मूल रचना के भरती के शब्दों का सवाल है अनुवाद को उनसे हर हाल में बचाया गया है। .
जयकुमार जलज
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