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ग्रन्थकर्ता के बौद्धिक चमत्कार से जैनी ही नहीं किन्तु जैनेतर जनता भी मुग्ध हो गई थी। आचार्य पद प्राप्त किये बाद जब वे स्थम्भन तीर्थकी यात्रार्थ खंभात नगरमें पधारे तब उनकी अति विद्वत्ता और चमत्कारी वादी शक्तिसे मुग्ध हो तत्रस्थ एक बांबी नामक विद्वान्ने उन्हें 'बाल सरस्वती' का विरुद प्रदान किया था। जैन समाज पर उपदेश द्वारा एवं कर्तव्य का दिग्दर्शन कराने वाले अपने ग्रन्थों द्वारा अत्यन्त उपकार करके वे सम्बत् १४२७ में पोष कृष्ण षष्ठीके रोज इस संसारकी जीवनयात्रा समाप्त कर स्वर्ग सिधारे।
विधिबाद के ग्रन्थोमें प्रधानपद भोगने वाले इस श्राद्धविधि प्रकरण नामक मूलग्रन्थ की रचना ग्रन्थकर्ता ने प्राकृत भाषामें मात्र १७ गाथाओंमें की है, परन्तु इस पर उन्होंने स्वयं संस्कृतमें श्राद्धविधि कौमुदी नामक छह हजार सातसौ इकसठ श्लोकोंमें जबरदस्त टीका रची है। उस टीका ग्रन्थ कर्ता ने श्रावकके कर्तव्य सम्बन्धी प्रायः कोई विषय बाकी नहीं छोड़ा। इसी कारण यह ग्रन्थ इतना बड़ा होगया है। सचमुच ही यह ग्रन्थ श्रावक कर्तव्य रूप रत्नोका खजाना है। धार्मिक क्रिया विधिविधान के जिज्ञासु तथा व्यवहारिक कुशलता प्राप्त करनेके जिज्ञासु प्रत्येक श्रावकको यह ग्रन्थ अपने पास रखना चाहिये । इस ग्रन्थके पढ़नेसे एवं मनन करनेसे धार्मिक क्रियाओं के करनेका सरलता पूर्वक रहस्य और सांसारिक व्यवहार में निपुणता प्राप्त होती है और धर्म करनी करने वालोंके लिये यह पवित्र ग्रन्थ हितैषी माग दर्शक का कार्य करता है। - अनुवाद के उपरान्त इम ग्रन्थक प्रथमके बारह फार्म छोड़ कर इसका संशोधन कार्य भी मेरे ही हाथसे हुआ है अतः यदि इसमें दृष्टिदोष से कहींपर प्रेस सम्बन्धी या भाषा सम्बधी त्रुटियें रह गई हों तो पाठक वृन्द सुधार कर पढ़ें और तदर्थ मुझे क्षमा करें।
विनीत तिलक विजय.