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ओर विशेष ध्यान रहता है और ऐसा होना अत्यावश्यक है, परन्तु जब तक मनुष्य को अपने करने योग्य धार्मिक और व्यवहारिक क्रिया कलापका विधि विधान एवं उन क्रियाओं में रहे हुये रहस्यका परिज्ञान न हो तब तक वह उन क्रियाओं के करनेसे भी विशेष लाभ नहीं उठा सकता। इस त्रुटिको पूर्ण करने के लिये क्रियाविधि वादियों के वास्ते यह ग्रन्थ अद्वितीय है ।
इस ग्रन्थके रचयिता विक्रमकी पंद्रहवीं शताब्दी में स्वनामधन्य श्रीमान रत्नशेखरसूरि हुये हैं । सुना जाता है कि श्री सुधर्मस्वामी की पट्टपरम्परा में उनकी ४८ वीं पाट पर श्री सोमतिलक सूरि हुये, उनकी पाट पर देवसुन्दर सूरि, उनकी पाट पर मुनिसुन्दर सुरि, मुनिसुन्दर सूरिकी पाट पर श्रीमान् रत्नशेखरसूरि हुये हैं । उनका जन्म विक्रम संवत् १४५७ में हुआ था। पूर्वोपार्जित सुकृतके प्रभाव से बचपन से ही संसार से विरक्त होने के कारण मात्र ६ वर्षकी ही वयमें उन्होंने सम्वत् १४६२ में असार संसारको त्याग कर दीक्षा अंगीकार की थी। आप की अलौकिक बुद्धि प्रगल्भता के कारण आपको सम्बत् १४८३ में पण्डित पदवी प्राप्त हुई और तदनन्तर सम्बत् १५२० में आप सूरि पदसे विभूषित हुये ।
आपने अपनी विद्वत्ता का परिचय दिलाने वाले श्राद्धप्रतिक्रमण वृत्ति, अर्थदीपिका, श्राद्धविधि सूत्रवृत्ति, श्राद्धविधि पर विधिकौमुदी नामक वृत्ति, आचारप्रदीप और लघुक्षेत्र समास आदि अनेक ग्रन्थ संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में लिख कर जैन समाज पर अत्युपकार किया है। आपके रचे हुये विधिवाद के ग्रन्थ आज जैन समाजमें अत्यन्त उपयोगी और प्रमाणिक गिने जाते हैं। आपके ग्रन्थ अर्थकी स्पष्टता एवं सरलता के कारण ही अति प्रिय हो रहे हैं। यदि सच पूछा जाय तो जैन समाज में विधिवाद के ग्रन्थोंकी त्रुटि आपके ही ' द्वारा पूर्ण हुई है ।