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श्राइविधि प्रकरण यह बिम्ब मट्टीमय होने के कारण अलसे गल गया। इससे संघपति रत्नोशाह अति दुःखित हुआ, उपवास करके यहां ही बैठ गया, उसे साठ उपवास हो गये तब अंबिका देवो की वाणीसे कंचनवलानक से चत्रमय श्री नेमि नाथ प्रभुकी प्रतिमा कच्चे सूतके तम्गोंसे लपेट कर मन्दिर के सामने लाये। परन्तु दरवाजे पर पीछे फिरके देखनेसे प्रतिमा फिर वहां ही ठहर गई। फिर मन्दिरका दरवाजा परावर्तन किया गया और वह अभी तक भी वैसा ही है।
कितनेक आचार्य कहते हैं कि कंचन बलानक में बहत्तर बड़ी प्रतिमायें थीं। जिसमें अठारह प्रतिमा सुवर्णकी, अठारह रत्नकी, अठारह चांदीको और अठारह पाषाणकी थीं। इस तरह सब मिला कर बहत्तर प्रप्तिमायें गिरनार पर थीं।
प्रतिमा बनवाये बाद उसकी अंजनशलाका कराने में विलंब न करना चाहिये । ७वां द्वार:-प्रतिमाकी प्रतिष्ठा अंजनशलाका शीघ्रतर करनी चाहिये। इसलिए षोडशक में कहा
है कि
निष्पमस्येवं खलु, जिनबिम्बस्योदिता प्रतिष्ठाश्च ।
दशदिक्साभ्यांतरता, सो च निविधा समासेन ॥१॥ तैयार हुए जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा-अंजनशलाका सचमुच ही दस दिनके अन्दर करनी कही है। वह प्रतिष्ठा भी संक्षेपसे तीन प्रकारकी है। सो यहां पर बतलाते हैं।
व्यक्त्याख्या खल्वेषा, क्षेत्राख्या चापरा पहाख्या च।
____ यस्तीर्थकृत यदाकिल, तस्य तदास्येति समयविदः ॥२॥ ध्यक्त्याख्या, क्षेत्राख्या, और महाख्या एवं तीन प्रकारकी प्रतिष्ठाय होती हैं। उसमें जो तीर्थंकर जब धिवरता हो तब उसकी प्रतिष्ठा करना उसे 'व्यक्ता' शास्त्र के जानकार कहते हैं । ऋषभाधानां तु तथा सर्वेषामेव मध्यमाञया।
ससत्यधिक सतस्यतु, चरमेहरमहा मतिष्ठसि ॥३॥ ऋषभदेव प्रमुख समस्त चौवीसीके बिम्बोंको अपने अपने तीर्थमें 'व्यक्ता' प्रतिष्ठा समझना। सर्व तीर्थ करोंके तीर्थमें चौबीसों ही तीर्थंकरों की अंजनशलाका करना यह "क्षेत्रा' मामक अंजनशलाका 'कहलाती है। एकालौ सत्तर तीर्थंकरों की प्रतिमा इसे 'महा' जानना।। एवं बहलायमें भी ऐसे ही कहा है कि
घन्ति पइठा एगा, खेत पइठ्ठा महामइठठाय।
एग चउबीस सीकरी, सयाणं सा होइ अणुकपसो॥४॥ व्यका प्रतिष्ठा पहली, क्षेत्रा प्रतिष्ठा दूसरी और महा प्रतिष्ठा तीसरी है। एक प्रतिमाको मुख्य रख कर प्रतिष्ठा करनासो पहली, चौबीस प्रतिमायें दूसरी, और एक सौ सत्तर प्रतिमायें यह तीसरी, इस अनु'कमसे तीन प्रकारकीप्रतिमा अंजनशलाका समझना चाहिए।