SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 440
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ४१६ AAAAAAAAAAAAAAAM श्राद्धविधि प्रकरण होनेके कारण यदि उसकी दिन गणना की जाय तो प्रति दिनका एक गिनने पर छत्तीस हजार नये जिन प्रासाद कराए गिने जाते हैं और अन्य जीर्णोद्धार कराए हैं। सुना जाता है कि संप्रतिने सवा करोड़ सुवर्ण वगैरह के नये जिनबिम्ब बनवाये थे। आम राजाने गोपालगिरि पर याने ग्वालियर के पहाड़ पर एकसौ एक हाथ ऊंचा श्री महाबोर भगवान का मन्दिर बनवाया था। जिसमें साढ़े तीन करोड़ सुवर्ण मोहरोंके खर्चसे निर्माण कराया हुआ सात हाथ ऊंचा जिनबिम्ब स्थापित किया था। उसमें मूल मंडपमें सवा लाख और प्रेक्षा मंडपमें इक्कीस लाखका खर्च हुआ था। कुमारपाल राजाने चौदहसौ चवालीस नये जिनमन्दिर और सोलह सौ जीर्णोद्धार कराए थे। उसने अपने पिताके नाम पर बनवाये हुए त्रिभुवन विहारमें छानवें करोड़ द्रव्य खर्च करके तय्यार कराई हुई सवा सौ अंगुली ऊंची रत्नमयी मुख्य प्रतिमा स्थापन कराई थी। बहत्तर देरियोंमें चौवीस प्रतिमा रत्नमयी, चौवीस सुवर्णमयी और चौवीस चांदीकी स्थापन की थीं। मंत्री वस्तुपाल ने तेरह सौ और तेरह नये मन्दिर बनवाए थे, बाईसौ जीर्णोद्धार कराए और धातु पाषाणके सवा लाख जिनबिम्ब कराये थे। पेथड़शाह ने चौरासी जिनप्रासाद बनवाये थे जिसमें एक सुरगिरि पर जो मन्दिर बनवाया था वहाँके राजा वीरमदे के प्रधान ब्राह्मण हेमादे के नामसे मांधातापुर (मांडवगढ़) में और ओंकारपुर में तीन वरस तक दानशाला की, इससे तुष्टमान हो कर हेमादे ने पेथड़शाह को सात महल बंध सके इतनी जमीन अर्पण की। वहां पर मन्दिर की नींव खोदते हुये जमीनमें से मीठा पानी निकला इससे किसीने राजाके पास जा कर उसके मनमें यह ठसा दिया कि यहां मीठा पानी निकला है इससे यदि इस जगह मन्दिर न होने दे कर जलवापिका कराई जाय तो ठीक होगा। पेथड़शाह को यह बात मालूम पड़नेसे रात्रिके समय ही उस जलके स्थानमें बारह हजार टकेका नमक डलवा दिया। वहां मन्दिर कराने के लिये बत्तीस ऊटणी सौनेसे लदी हुई भेजी गयीं। चौरासी हजार रुपये मन्दिर का कोट बांधनेमें खर्च हुये थे। मन्दिर तय्यार होनेकी बधावणी देने वालेको तीन लाख रुपयेका तुष्टिदान दिया गया था। इस प्रकार पेथडविहार मन्दिर बना था। पेथड़ शाहने शत्रुजय पर इक्कीस घड़ी सुवर्णसे मूलनायक के चैत्यको मंढ कर मेरुशिखर के समान सुवर्णमय कलश चढ़ाया था। गत चौवीसी में तीसरे सागर नामक तीर्थंकर जब पज्जेणीमें पधारे थे तब नरवाहन राजाने उनसे यह पूछा कि मैं केवलज्ञान कब प्राप्त करूंगा। तब उन्होंने उत्तर दिया था कि तुम आगामी चौबीसीमें पाईसमें तीर्थंकर श्री नेमिनाथजी:के तीर्थमें सिद्धिपद प्राप्त करोगे। तब उसने दीक्षा अंगीकार की और अनशन करके वह ब्रह्मदेव लोकमें इन्द्र हुभा । उसने वज्र, मिट्टीमय श्री नेमिनाथजी की प्रतिमा बना कर दस सागरोपम तक वहां ही पूजी। फिर अपना आयुष्य पूर्ण होता देख वह प्रतिमा गिरनार पर ला कर मन्दिर के रत्नमय, मणि मय, सुवर्णमय, इस प्रकारके तीन गभारे जिनबिम्ब युक्त कर उसके सामने कंचनबलामक ( एक प्रकार की गुफा ) बना कर उसमें उसने उस बिम्बको स्थापन किया। इसके बाद बहुतसे काल पीछे रत्नोशाह संघपति एक बड़ा संघले कर गिरनार पर आया उसने बड़े हर्षसे मन्दिरमें मूलनायक की स्नात्रपूजा की। उस वक्त
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy