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________________ श्राद्धविधि प्रकरण आश्रित करके अनानुपूर्षीके तीन लाख, बासठ हजार, आठ सौ अठोत्तर गणना होती है। इसकी रचना करनेका स्पष्टतया बिचार पूज्य श्री जिनकीर्ति सृरिपादोपज्ञ ( स्वयं रचित ) सटीक श्री पंच परमेष्ठी स्तवन से जान लेना। इस प्रकार नवकार गिननेसे इस लोकमें शाकिनी, व्यंतर वैरी, गृह, और महारोगादि तत्काल निवृत होते है और परलोक संबन्धी फल अनन्त कर्मक्षयादिक होता है। इसलिये कहा है कि: ____ छह मासिक, वार्षिक, तीव्र तप करनेसे जितने पाप क्षय होते हैं उतने पाप नवकार की अनानुपूर्वी गिननेसे एक अर्द्ध क्षणमें दूर होते हैं। शीलांग रथादिक यदि मन, वचन कायकी एकाग्रता से गिने जांय तो तीनों प्रकारका ध्यान होता है। इसलिये आगममें भी कहा है कि: भंगी सुनगुणतो वदइ तीहैये विझ्झाणमिति” ___ भांगेवाले याने भेद कल्पना करके श्रुतको (नवकार को) गिने तो तीनों प्रकारके ध्यानमें वर्तता है । इस तरह स्वाध्याय करनेसे अपने आपका और दूसरेका कर्मक्षय होता हैं। धर्मदा श्रावकके समान प्रतिबो. धादि अनेक गुणकी प्राप्ति होती है। ___ "स्वाध्याय ध्यान पर धर्मदासका दृष्टान्त" धर्मदास नामक श्रावक प्रति दिन संध्याका प्रतिक्रमण करके स्वाध्याय किया करता था। एक दिन उसने अपने पिता सुश्रावक को कि जिसकी प्रकृति क्रोधिष्ठ थी उसे क्रोध परित्याग का उपदेश किया; इससे वह अधिक कोपायमान हुआ और हाथमें एक बड़ी लकड़ो लेकर उसे मारनेके लिये दौड़ा। परन्तु रात्रिका समय था इसलिये अंधेरे में उसका घरके १ थंभेसे मस्तक टकराया जिससे वह तत्काल ही मृत्युके शरण हुवा और सर्पतया उत्पन्न हुआ। एक समय वह काला सर्प पुत्रको डसनेके लिये आता है उस वक्त तिव्वंपि पुत्रोंडी। कयंपि सुकयं मुहुत्तमित्तण ॥ ___ फोहग्गी हो हणिउ । हहा हवइ भवदुगेविदुहो ॥१॥ "क्रोधरूप अग्निसे ग्रहित मनुष्य पूर्व क्रोड़ वर्षोंके किये हुये सुकृतको दो घड़ी मात्रमें भस्म कर डालता है और वह दोनों भवमें दुःखित होता है।” इस प्रकारसे स्वाध्याय करते हुये धर्मदास के मुखसे निकलते हुये अभिप्राय को सुनकर तत्काल ही उस सर्पको जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, इससे वैरभाव छोड़ कर अनशन द्वारा मृत्यु पाकर सौधर्म देवलोक में देवतया उत्पन्न हुआ। फिर वह अपने पुत्रको सव कार्यकारी हुआ। धर्मदास श्रावक भी एक समय स्वाध्याय करते हुये ध्यानमें लीन हो गया जिससे उसने गृहस्थ अवस्था में ही केवलज्ञान प्राप्त किया। इस लिये स्वाध्याय करना बहुत लाभदायक है। फिर सामायिक पूर्ण करके घर जाके सम्यक्त्व मूल देशविरत्यादि रूप सब कार्योंमें सर्व शक्तिसे यतना करने रूप, सर्वथा अहंत चैत्य और साधर्मिक सिवाय अन्य स्थानोंको एवं कुसंसर्ग को बर्जकर नवकार गिनना।। स्वजनोंको त्रिकाल चैत्य बंदना पूजा प्रत्याख्यानादिक अभिग्रह धारण रूप, यथाशक्ति सात क्षेत्रोंमें
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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