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________________ amraam.camvadindian श्राद्धविधि प्रकरण जिसने भोजनकी आमन्त्रणा से प्रीति उत्पन्न की है, वैसे देव, गुरुका स्मरण करने वाले श्रावक को सम आसन पर, चौड़े आसन पर, उच्च आसन पर, स्थिर आसन पर बैठ कर, माता, बहिन, दादी, भांजी, स्त्री, वगैरह से आदर पूर्वक परोसा हुआ पवित्र भोजन करना चाहिये । रसोइये वगैरह के अभाव में घरकी स्त्रियों द्वारा परोसा हुआ भोजन करना चाहिये। भोजन करते समय मौन धारण करना चाहिये, शरीर को बांका चूका न करना चाहिये, दाहिनी नासिका चलते समय भोजन करना चाहिये, जो जो वस्तु खानी हों उन सबको दृष्टि दोषके विकार को दूर करनेके लिये प्रथम अपनी नासिका से सूघ लेना चाहिये। और अति खारा, अति खट्ठा, अति ऊष्ण, अति शीतल, नहीं परन्तु मुखको सुखाकारी भोजन करना चाहिये । अचुणहं हणइरसं । अइ अब इन्दियाइ उवहणई ॥ अइ लोणियं च चख्खु । अइणिद्ध भंजए गहणिं ॥१३॥ अति उष्ण रसका विनाश करता है, अति खट्टा इन्द्रियों को हनता है, अति खारा चक्षुओं का विनाश करता है, अति चिकना नासिका के विषय को खराब करता है। तितकडुएहि सिंभं । जिणाहिपित्तं कसाय महुरेहिं ॥ निठण्हेहिं अवायं । सेसावाही अणसणाए ॥ १४॥ तिक्त, और कटु पदार्थ के त्याग से श्लेष्म, कषायले, और मधुर पदार्थके परित्याग से पित्त स्निग्ध-चिकने और उष्ण पदार्थ के त्यागसे वायु तथा अन्य व्याधियों को बाकीके रस परित्याग से जीती जा सकती हैं। अशाकभोजी घृतमति योधसा। पयोरसान सेवति नातियोंभसा ॥ अभुविभुम्मूत्रकृता विदाहिनां । चलत्पमुग जीर्ण भूगल्पदेहरुम्॥१५॥ शाक बिना किया हुआ भोजन घीके समान गुणकारी होता है, दूध और चावल की खुराक मदिरा के समान गुणकारी होती है। खाते समय अधिक जलपान न करना श्रष्ठ है। जो मनुष्य लघु नीति बड़ी नीति की शंका निवारण करके भोजन करता है उसे अजीर्ण नहीं होता। इस प्रकार उपरोक्त वर्ताव करने वाले को प्रायः बीमारी नहीं होती। आदौ तावन्मधुर। मध्ये तीक्ष्णं ततस्ततः कटुकं ॥ दुर्जन मैत्री सदृशं । भोजनमिच्छन्ति नीतिज्ञाः ॥१६॥ दुर्जन पुरुषों की मित्रता के समान नीति जानने वाले पुरुष पहले मधुर, बीचमें तीक्ष्ण, और फिर कटु । भोजन इच्छते हैं। सुस्निग्ध मधुरः पूर्वमश्नीयादन्वितं रसः ॥ द्रवाम्ललवणैर्मध्ये । पर्यन्ते कटुतिक्तकैः ॥१७॥ पहले चिकने और मधुर रस सहित पदार्थ खाना, प्रवाही खट्टे और खारे रस सहित पदाथ बीचमें खाना, और कटु तथा तिक्त रस सहित पदार्थ अन्तमें खाना।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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