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श्राद्धविधि प्रकरण की। रथयात्रा, तथा तीर्थयात्रायें करना, चांदिमय, सुवर्णमय, एवं मणिमय अरहंत की प्रतिमायें भरवाना, उनकी प्रतिष्ठा करवाना, नये मंदिर बनवाना, चतुर्विध श्री संघका सत्कार करना, उपकारी एवं दूसरोंको भ योग्य सन्मान देना, वगैरह सुकृत्य करनेमें बहुतसा काल व्यतीत करनेसे उसने अपनी लक्ष्मीको सफल किया। उसके संसर्गसे उसकी दोनों स्त्रियां भी धर्ममें निरत हुई। क्योंकि श्रेष्ठ पुरुषके संसर्गसे क्या न हो ? दोनों त्रियों के साथ आयुष्य क्षय होनेसे वे पंडित मृत्यु द्वारा बारहवे देवलोक में देवतया उत्पन्न हुये। क्योंकि श्रावकपन में इतनी ही उत्कृष्ट उच्चगति होती है। वहांसे चल कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म ले सम्यक् प्रकारसे श्री अरिहंत प्ररूपित धर्मकी आराधना कर मोक्ष लक्ष्मीको प्राप्त हुये। रत्नसारचरिता दुदीरीता दिथ्यमद्भुततया वधारितात ॥
पात्रदानविषये परिग्रह स्वेष्टमान विषये च यत्यतां॥ इस प्रकार रत्नसार कुमारका चरित्र कथन किया। उसे आश्चर्यतया अपने वित्तमें धारण कर सुपात्र दानमें और परिग्रह के परिमाण करनेमें उद्यम करो।
"भोजनादिक के समय दयादान और अनुकंपा" साधु वगैरह का योग होनेपर विवेकी श्रावकको अवश्य ही विधिपूर्वक प्रतिदिन सुपात्र दान देनेमें उद्यम करना। एवं भोजनके समय आये हुये स्वधर्मी को यथाशक्ति साथ लेकर भोजन करे, क्योंकि वह भी सुपात्र है। स्वामीवात्सल्य की विधि पर्वकृत्य के अधिकार में आगे चलकर कही जायगी। औचित्य द्वारा अन्य भिक्षु वगैरह को भी दान देना चाहिये। परन्तु उन्हें निराश करके वापिस न लौटाना। वैसा करनेसे कर्मबन्धन न करावे, धर्मनिन्दा न करावे; निष्ठुर हृदयवाला न बने। बड़े मनुष्योंके या दयालु लोगोंके ऐसे लक्षण नहीं होते कि जो भोजनके समय दरवाजा बन्द करलें। सुना जाता है कि चित्तौड़में चित्रांगद राजा जब कि शत्रुके सैन्यसे किला वेष्टित था और जब शत्रुओंका नगरमें प्रवेश करनेका भय था, भोजनके समय नगरका दरवाजा खुला रखता था। राजा भोजनके समय दरवाजा खुलवा रखता है, यह मार्मिक बात एक वेश्याने शत्रु लोगोंसे जा कही। इससे वे नगरमें घुस गये, परन्तु राजाने अपना नियम बन्द न किया। इसलिये श्रावकको भोजनके समय दरवाजा बन्द न करना चाहिये। तथा श्रीमंत श्रावकको तो उस बातका विशेष ख्याल रखना चाहिये कि:कुतिं भरिनकस्कोत्र, बव्हाधारः पुमान् पुमान् ।
ततस्तत्काल मायातान् । भोजये ब्दांधवादिकान् ॥१॥ अपना पेट कौन नहीं भरता? जो अन्य बहुतोंको आधार देता है वही मनुष्य मनुष्य गिना जाता है, इसलिये भोजनके समय घर पर आये हुये बन्धुजनादि को भोजन कराना यह गृहस्थाचार है।
अतिथी नर्थीनो दुस्थान । भक्ति शक्त्यानुकंपनः॥ ... ...... कृत्वा कृतार्थानोचित्याद । भोक्तुंयुक्त महात्मनां ॥२॥