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श्राद्धविधि प्रकरण काया। इससे वह अपने मनमें बड़ा दिलगीर हुआ और क्रोध आ जानेसे वह शीघ्र ही नगर से बाहर निकला क्योंकि मानी मनुष्यों के लिये प्राणहानि से भी अधिक मानहानि गिनी जाती हैं। जैसे शान, दर्शन, चारित्र सहित आत्मा होता है वैसे ही मित्रता से दूर न रहने वाले अपने तीन मित्रों सहित कुमार परदेश चला । कहा है कि:जानीयात्लेषणे भृत्यान् । बांधवान् व्यसनागमे ॥ पित्रमापदिकाले च । भार्या च विभवक्षये ॥
नौकर की किसी कार्य को भेजने के समय, बन्धु जनों की कष्ट आनेके समय मित्रकी आपत्तिके समय, और स्त्री की द्रव्य नाश हो जाने के समय परीक्षा होती है।
साथमें चलते हुये मार्गमें वे जुदे हो गये इससे सार्थ भ्रष्टके समान वे राह भूल गये, और बहुत ही बुभुक्षित हो गये, इससे वे अति पीडित होने लगे। बहुतसा परिभ्रमण कर वे तीसरे दिन किसी एक गांवमें इकठे हुये, तब उन्होंने वहां पर भोजन करनेकी तयारी की। इतनेमें ही वहां पर भिक्षा लेनेके लिये और पुण्य महोदय देनेके लिये थोडे ही भव-संसार वाला जिनकल्पी मुनि गौचरी आया; सरल स्वभाव से और उल्लास पाते हुये शुद्ध परिणाम से राजपुत्र श्रीसारने उस मुनिराज को दान दिया। और उससे पुण्य भोग फलक ग्रहण किया। दूसरे दो मित्रोंने मन, वचन, कायसे, उस सुपात्र दानकी अनुमोदना की, क्योंकि समान वय वाले मित्रोंको सरीखा पुण्य उपाजन करना योग्य ही है, परन्तु दो दो सब कुछ दो। ऐसा योग फिर कहाँसे मिलेगा? इस प्रकार बोलकर दो मित्रोंने कपटसे अपनी अधिक श्रद्धा बतलाई । क्षत्रिय पुत्र तो तुच्छात्मा था, इसलिये बोहराने के समय उन्हें बोलने लगा कि भाई मुझे बहुत भूख लगी है, मैं भूखसे पीडित हो रहा हूं अतः मेरे लिये थोड़ा तो रक्खो। ऐसा बोल कर निरर्थक ही दानान्तराय करनेसे उस तुच्छ बुद्धिवाले ने भोगान्तराय फर्म बांधा। फिर थोड़े ही समयमें राजाके बुलानेसे वे तीनों जने स्वस्थान पर चले गये और श्रीसारको राज्य प्राप्त हुआ। मंत्रिपुत्र को मंत्रिमुद्रा, श्रेष्ठी पुत्रको श्रेष्ठी पदवी और क्षत्रिय पुत्रको वीराग्रणी पदवी मिली। इस प्रकार चारों जने अनुक्रमसे पदवियां प्राप्त कर मध्यस्थ गुणवन्त रह कर आयुष्य पूर्ण होने पर कालधर्म को प्राप्त हुये। उनमेंसे श्रीसार सुपात्र दानके प्रभावसे यह रत्नसार हुआ, प्रधान पुत्र और श्रेष्ठिपुत्र दोनों जने मुनिको दान देनेमें कपट करनेसे रत्नसार की ये दो स्त्रियां हुई। और क्षत्रियपुत्र दानान्तराय करनेसे तिर्यंच यह तोता हुआ। परन्तु ज्ञानका बहुमान करनेसे यह इस भवमें बड़ाही विचक्षण हुआ है। श्रीसारसे छूटे हुये उस चोरने तापसी व्रत अंगीकार किया था जिससे वह चंद्रचूड देव हुआ कि जिसने बहुत दफा रत्नसार की सहाय की।
__ यह सुन कर राजा वगैरह सुपात्र दान देने में अति श्रद्धावन्त हुये। और उस दिनसे अरिहन्त प्ररूपित धर्मको सेवन करने लगे। बड़े मनुष्यों का धर्म सूर्यके समान दीपता हुआ प्रथम अज्ञानरूप अन्धकार को दूर करके फिर सर्व प्राणियोंको सन्मार्ग में प्रवर्ताता है। पुण्यमें सार समान रत्नसार कुमारने अपनी दोनों स्त्रियोंके साथ बहुत काल तक उत्कृष्ट सुखानुभव किया। अपने भाग्ययोग से अर्थवर्ग और कामवर्ग सुखपूर्वक ही प्राप्त हुये होनेके कारण परस्पर विरोध रहित उस शुद्ध बुद्धिवाले रत्नसारने तीनों वर्गोंकी साधना