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श्राद्धविधि प्रकरण इस अवसर्पिणी में पहले चार तीर्थंकरों ( ऋषभदेव, अजितनाथ, संभवनाथ और अभिनन्दन खामी ) के समवसरण इस तीर्थपर हुए हैं । एवं अठारह तीर्थंकरों (सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ, चंदप्रभ, सुविधिनाय, शीतलनाथ, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ, मलिनाथ, मुनिसुव्रत, नमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीरस्वामी ) के समवसरण भी यहां होनेवाले हैं। एक नेमनाथ विना इस चोवीसी के अन्य सब तीर्थकर इस तीर्थ पर समवसरेंगे। इस तीर्थपर अनन्त मुनि सिद्धिपद को प्राप्त हुए हैं इसीलिये इस तीर्थ का नाम सिद्धिक्षेत्र प्रसिद्ध हुआ है। सर्व जगत् के लोक जिनकी पूजा करते हैं ऐसे तीर्थकर भी इस तीर्थ की बड़ी प्रशंसा करते हैं एवं महाविदेहक्षेत्र के मनुष्य भी इस तीर्थकी निरन्तर चाहना करते हैं। यह तीर्थ प्रायः शाश्वता ही है । दूसरे तीर्थोंपर जो तप जप दानादिक तथा पूजा स्मात्रादिक करने. पर फल की प्राप्ति होती है उससे इस तीथपर तप, जप, दानादिक किये हुए धर्मकृत्य का फल अनन्तगुणा अधिक होता है। कहा भी है कि
पल्यामसहस्रं च ध्यानालाममिंग्रहात् । दुष्कर्म क्षीयते मार्गे सागरोपम समीतम् ॥ १॥ शत्रुजये जिन दृष्टे दुर्गतिद्वितीयं क्षिपेत् ।
सागराणां सहस्रं च पूजास्नात्रविधानतः ॥ २ ॥ "अपने घरमें बैठा हुआ भी यदि शत्रुजय का ध्यान करे तो एकहजार पल्योपम के पाप दूर होते हैं, और तीर्थ यात्रा न हो तबतक अमुक वस्तु न खाना ऐसा कुछ भी अभिग्रह धारण करे, तो एकलाख पल्योपम के पाप नष्ट होते हैं । दुष्टकर्म निकावित हो तथापि शुभ भाव से क्षय कर सकता है। एवं यात्रा करने के लिए अपने घर से निकले तो एक सागरोपम के पापको दूर करता हैं । तीर्थ पर चढ़कर मूलनायक के दर्शन करे तो उसके दो भव के पाप क्षय होते हैं। यदि तीर्थनायक की पूजा तथा स्नात्र करे तो एकहजार सागरोपमके पाप कर्म क्षय किए जा सकते हैं ! इस तीर्थ की यात्रा करने के लिए एक एक कदम तीर्थ के सन्मुख जावे वह एक एक कदम पर एक एक हजार भवकोटि के पाप से मुक्त होता है । अन्य स्थानपर पूर्व करोड़ वर्ष तक क्रिया करने से जिस शुभ फल की प्राप्ति होती है वह फल इस तीर्थ पर निर्मल भाव द्वारा धर्मकृत्य करनेपर अंतर्मुहूत में प्राप्त किया जा सकता है । कहा है कि;
जं कोडिए पुण्णं कामिभआहारभाइभाए।
तं लहइ तिथ्यपुण्णं एगो वासेण सत्तुंजे ॥१॥ - अपने घर बैठे इच्छित आहार भोजन कराने से क्रोड़ बार स्वामिवात्सल्य करने पर जो पुण्य प्राप्त होता है उतना पुण्य शकुंजय तीर्थ पर एक उपवास करने से होता है।
किवि नाम तिध्यं सगे पायाले माणुसे लोए । तं सव्वमेवदि; पुंडरिए दिए संते ॥२॥