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________________ श्राद्धविधि प्रकरण दृढतासे बंधे हुये हिण्डोले पर प्रथम अशोकमंजरी राजकन्या बैठी। हिंडोलेमें झूलने बाली अशोकमंजरी नामक बड़ी बहिनको तिलकमंजरी बड़े जोरसे झुलाने लगी, इससे बड़ी ऊंची ऊंची पींग आने लगीं। जब अशोकमंजरी ने अपने पैरसे अशोक वृक्षको स्पर्श किया कि जिससे जैसे स्त्रीके पदाघातसे प्रसन्न हुआ पति वश हो जाता है वैसे ही वह अशोक वृक्ष प्रफुल्लित होनेसे रोमांचित को धारण करने लगा। हिंडोलेमें झूलती हुई उस सुंदर आकारवाली राजकन्या अशोकमंजरी के विविध प्रकारके विकारों द्वारा अन्य कितने एक युवान् पुरुषोंके नेत्र और मन हिंडोलेके बहानेसे झूलने लग गये, अर्थात् विषयातुर होने लगे। अशोकमंजरी के रत्नजड़ित हलते हुये पैरोंके नूपुर प्रमुख आभूषण रणझणाहट करते हुये टूट पड़नेके भयसे मानो प्रथमसे ही वे पुकार न करते हों! युवान पुरुषोंसे एवं अन्य युवति स्त्रियोंसे देखी जाती हुई शोभायमान अशोकमंजरी झूलनेके रसमें निमग्न हो रही थी इतनेमें ही दुवके योगसे एक प्रचंडवायु आनेके कारण वह हिंडोला एक दम टूट पड़ा। नवजके समान हिंडोला टूट जानेसे हाय हाय! अब इस राजकन्या का क्या होगा? इस विचारमें सबके सब आकुल व्याकुल बन गये। इतनेमें ही हिंडोला सहित अशोकमंजरी मानो स्वर्गमें ही न जाती हो इस तरह लोगोंके देखते हुये वह आकाश मार्गसे उड़ी। यमराज के समान अदृश्य रह कर हाय हाय ! इस राजकन्या को कोई हर कर ले जा रहा है, इस प्रकार आकुल व्याकुल हुये लोगोंने ऊंच स्वरसे पुकर किया। अरे! वह ले जा रहा है, वह ले गया, इस प्रकार ऊंचे देख कर बोलते हुये लोगोंने बहुतसे बलवान या धनुष्यधर लोगोंने, बहुत वेगसे उसके पीछे दौडनेवाले शुरवीर पुरुषोंने और अन्य भी कितने एक लोगोंने अपनी अपनी शक्तिके अनुसार बहुत ही उद्यम किया परन्तु किसी की भी कुछ पेश न चली; क्योंकि अदृश्य होकर हरन कर लेने वालेसे क्या पेश आवे ? कानोंमें सुनने मात्रसे वेदना उत्पन्न करनेवाले कन्याके अपहरणका समाचार सुनकर राजाको वज्राघात के समान आघात लगा। हा! हा! पुत्री तू कहाँ गई ? हे पुत्री ! तू हमें अपना दर्शन देकर क्यों नहीं प्रसन्न करती? हे स्वच्छहृदये ! तू अपना पूर्वस्नेह क्यों नहीं दिख.. लाती ? राजा विव्हल होकर जब इस प्रकार पुत्री विरहातुर हो विलाप करता है तब कोई एक सैनिक राजा के पास आकर कहने लगा कि, हे महाराज! अशोकमंजरी का अपहरन हो जानेके शोकसे आकुल व्याकुल हो जैसे प्रचंड पवनसे वृक्षकी मंजरी हत हो जाती है वैसे ही तिलकमंजरी मूर्छा खाकर पाषाण मूत्तिके समान निचेष्ठ हो पड़ी है । घाव पर नमक छिड़कने के समान पूर्वोक्त बृतान्त सुनकर अति खेदयुक्त राजा कितने एक परिवार सहित तत्काल ही तिलकमंजरीके पास पहुंचा। चंदनका रस सिंचन करने एवं शीतल पवन करने वगैरह के कितने एक उपवारों और प्रयासोंसे किसी प्रकार जब वह कन्या सचेतन हुई तब याद आनेसे वह ऊंच स्वरसे रुदन करने लगी। "हा, हा! स्वामीनी ! हा मत्तभ गामिनी! तू कहां गई, तू कहां है। हा, हा तू मुझ पर सच्ची स्नेहवती होकर मुझे छोड कर कहां चली गई? हे भगिनी ! मैं तेरे विना किसका आलम्बन लू? हे प्रिय सहोदरा! अब मैं तेरे बिना किस प्रकार जी सकूगो। हे पिताजी ! मेरे लिये इससे बढ़ कर और कोई अनिष्ट नहीं । अब मैं अशोकमंजरीके विना किसतरह जीवित रह
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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