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श्राद्धविधि प्रकरण
३२८ मनोभाव को भेदन करने लगी उन दोनोंका जिस प्रकार रूप लावण्य समान था बैसे ही उनका आचार विचार और आनन्द विषाद, तथा प्रेमादि गुण भी समान ही था। इसलिए कहा है कि:
सहजग्गीराण सहसो । विराण सह हरिससो अवंताणं ॥
नयणाणव धम्मावाणं। आजम्मं निच्चलं पिम्मं ॥१॥ साथमें ही जागना, साथमें ही सोना, साथ ही हर्षित होना, साथ ही शोकयुक्त होना, इस तरह दो नेत्रोंके समान सरीखे स्वभाववाली अपनी पुत्रियोंको देख राजा विचारने लगा कि जिस प्रकार रति और प्रीति इन दोनोंका एकही कामदेव पति है वैसे ही इन दोनों कन्याओं के योग्य एक ही वर कौन होगा ? इन दोनोंमें परस्पर ऐसी गाढ प्रीति है कि जो इनकी भिन्न २ वरके साथ शादी करा दी जाय तोपरस्परके विरहसे सचमुच ही ये दोनों कन्यायें मृत्युके शरण हुये विना न रहेंगी। जब एक कल्पलता का निर्वाह करनेवाला मिलना मुश्किल है तब ऐसी दोनों कन्याओं के निर्वाह करनेमें भाग्यशाली हो ऐसा कौन पुण्यशाली होगा। इस जगतमें मैं एक भी ऐसा वर नहीं देखता कि जो इन दोनों कन्याओंमें से एकके साथ भी शादी करने के लिये भाग्यशाली हो। तब फिर हाय ! अब मैं क्या करूंगा? इस प्रकार कनकध्वज राजा अपने मनही मन चिन्ता करने लगा। उस अति चिन्ताके तापसे संतप्त हुआ राजा महीनेके समान दिन, वर्षके समान महीने
और युगके समान वर्ष, व्यतीत करने लगा। जिस प्रकार सदाशिव की दृष्टि सामने रहे हुये पुरुषको कष्टकारी होती है, वैसेही ये कन्यायें भाग्यशाली होने पर भी पिताको कष्टकारी हो गई, इसलिये कहा है कि:
जातेति पूर्व महतीतिचिंता। कस्य प्रदेयेति ततः प्रवृद्धः॥
दत्ता सुखं स्थास्यति वा न वेत्ति। कन्या पितृत्वं किल हंत कष्टम् ॥ कन्याका जन्म हुआ इतना श्रवण करने मात्रसे बड़ी चिन्ता उत्पन्न होती है, बड़ी होनेसे अब इसे किसके साथ ब्याहें यह चिन्ता पैदा होती है, अपनी ससुराल गये बाद यह सुखी होगी या नहीं ऐसी चिन्ता होती है, इस लिये कन्याके पिताको अनेक प्रकारका कष्ट होता है। ___अब कामदेव की बड़ाईका विस्तार करनेके लिये अंगलमें अपनी ऋद्धि लेकर वसंतराज निकलने लगा। वसन्तराजा मलयावल पर्वतके सुंसुवाट मारता झनझनाहट से, भ्रमरोंके समुदाय से, वाचाल कोकिलाओं के मनोहर कोलाहल से, तीन जगत्को जीतनेके कारण आहंकार युक मानो कामदेव की कीर्तिका गान ही न करता हो इस प्रकार गायन करने लगा। इस समय हर्षित चित्तवाली राजकन्यायें वसंत-क्रीडा देखनेके लिये आतुर हो कर बनोद्यानमें जानेके लिये तैयार हुई; हाथी, घोड़े, रथ, पालखीमें बैठकर दास दासियोंके वृन्द सहित चल पड़ी। जिस प्रकार सखियोंसे परिवरित लक्ष्मी और सरस्वती अपने विमानमें बैठ कर शोभती है वैसे ही अपनी सखियों सहित पालखीमें सुखपूर्वक बैठ कर शोभती हुई, वे दोनों कन्याय शोक सन्ताप को दूर कराने पाले अनेक जातिके अशोक वृक्षोंसे भरे हुये, अशोक नामक उद्यान में आ पहुंची। यहां पर जिन उन्होंने पर श्याम भ्रमर बैठे हैं वैसे चमकदार श्वेत पुष्पवाले आरामको देखा। फिर बावना चन्दनके काष्टसे घड़े हुये सुवर्णमय और मणियोंसे जड़े हुये, ढोले जाते हुये चामर सहित लाल अशोक वृक्षकी एक बड़ी शाखामें
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