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________________ श्राद्धविधि प्रकरण रत्नकुमार उसके साथ युद्ध करने के लिए तत्पर होकर दृष्टि विसर्प के भयंकर दिखाव समान, म्यानसे तलवार खींच अपने हाथमें धारण कर अरे वीरत्वके मानको धारण करनेवाले जरा खड़ा रह! क्या यह वीर पुरुषोंका धर्म है ? यों कह कर शीघ्र ही उसके पीछे दौड़ा। परन्तु बिजलीके चमत्कार के समान अति सत्वर वेगसे सिद्ध चोर तापसकुमार को न जाने कहां लेगया! उसके आश्चर्यकारक आचरण से चकित हो तोता बोलने लगा कि हे कुमार ! व्यर्थ ही विचक्षण होकर भमितके समान क्यों पीछे दौड़ता है ? कहां है वह तापसकुमार और कहां है वह प्रचंड पवन ? जैसे जीवितको यमराज हरन करने जाता है वैसे ही इस तापस. कुमारको हरन करके अपना निर्धारित कार्य कर न जाने अब वह कहां चला गया, सो किसे मालूम हो सकता है ! जब वह लाखों या असंख्य योजन प्रमाण क्षेत्रको उलंघन कर अदृश्य होगया तब अब उसके पीछे जानेसे क्या लाभ ? इसलिये हे विचक्षण कुमार ! आप अब इस कार्यसे पीछे हटो! अब निष्फल प्रयत्न होकर लज्जाको धारण करता हुवा पीछे हटकर कुमार खेद करने लगा। हे गन्धके बहन करनेवाले पवन तूने यह अग्निमें घी डालनेके समान अकार्य क्यों किया ? मेरे स्नेही मुनिको तूने क्यों हरन कर लिया ? हाय मुनीन्द्र ! तेरे मुख रूप चंद्रमासे मेरे नीलोत्पल समान नेत्र कब विकस्वर होंगे? अमृतको भी जीत लेनेवाली तेरी मधुरवाणी कल्पवृक्षके फूलकी आशा रखनेवाले रंक पुरुषके समान अब मैं कहांसे प्राप्त कर सकूँगा ? कुमार अपनी स्त्रीके वियोग होनेके समान विविध प्रकारसे बिलाप करने लगा। तब कुमारको समझाने के लिये वह चतुर तोता बोला कि, हे कुमार सचमुच ही मेरी कल्पनाके अनुसार यह कोई तापस कुमार न था। परन्तु कोई कौतुक करके गुप्त रूप धारण करने वालो कोई अन्य ही था। उसके आकार, हाव भाव, विकार और उसके बोलनेकी रब ढबसे एवं उसके लक्षणोंसे सचमुच ही मुझे तो यह अनुमान होता है कि वह कोई पुरुष न था किन्तु कोई कन्या ही थी। कुमारने पूछा तूने यह कैसे जाना ? तोता बोला कि यदि ऐसा न हो तो उसकी आंखोंमें से अव क्यों झरने लगे? यह स्त्रीका ही लक्षण था परन्तु उत्तम पुरुषसे ऐसा नहीं हो सकता और मैं अनुमान करता हूं कि जो भयंकर पवन आया था वह भी पवन न होना चाहिये किन्तु कोई दैविक प्रयोग ही होना चाहिये । क्योंकि यदि ऐसा न हो तो हम सब क्यों न उड़ सके। वह अकेला ही उडा। प्रशंसा करने लायक वह कन्या भी किसी दिव्य शक्तिवाले के पंजेमें आपसी होनी चाहिये । मैं यहांतक भी कल्पना करता हूं कि वह कन्या चाहे जैसे समर्थ शक्तिवान के पंजेमें आगई हो तथापि वह अन्तमें आपके ही साथ पाणिग्रण करेगी क्योंकि जिसने प्रथमसे ही कल्पवृक्ष के फल देखे हों वह तुच्छ फलोंकी बच्छिा कदापि नहीं करता उस दुष्ट देवके पंजे से भी उसका छुटकारा मेरी कल्पनाके अनुसार तेरे पुण्य उदयसे तेरे ही हाथसे होगा! क्योंकि अवश्य बनने योग्य वांछित कार्यकी सिद्धि श्रेष्ठ भाग्यशाली को ही होती है । जो मुझे सम्भव मालूम होता है मैं वही कहता हूं। परन्तु सचमुच ही वह तुझे मानने योग्य ही होगी और मेरा अनुमान सच्चा है या झूठा इस बातका भी निर्णय तुझे थोड़े ही समयमें होजायगा। इस लिये हे विचारवान कुमार ! ये दुखित विलाप छोड़ दे। क्या इस प्रकारका साहसिक विलाप करना उचित है ? तोतेकी यह युक्ति पूर्ण वाणी सुनकर मनमें धैर्य धारण कर रत्नसार कुमार उसका शोक संताप छोड़
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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