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________________ श्राद्धविधि प्रकरण एक तूही है कि जिसका तोता भी इस प्रकारके विचक्षण वचन वोलनेमें चतुर है । इस लिये मेरे चित्तके आशय को जानने बाले और सर्वोत्तम शोभनीय इस घोड़ेसे नीचे उतर कर मेरे अतिथि बनकर मुझे कृतार्थ करो! यह नैसर्गिक सरोवर, इसमें बिकस्वर हुये उत्तम कमल, यह निर्मल जल, यह बन और मैं स्वयं ही आपके आधीन हूं। ऐसे जङ्गलमें हम तपस्वी लोग आपका क्या आतिथ्य करें ? तथापि यथाशक्ति हमारी भक्ति हमें प्रगट करनी चाहिये। पत्र, पुष्प, फलरहित कैरका पेड़ क्या अपनी किंचित् छायासे पन्थिजनको कुछ विश्राम नहीं देता ? इसलिये आज आप हमारी यह विज्ञप्ति अंगीकार करें। यह सुन कर रत्नसार कुमार प्रसन्नता पूर्वक घोड़ेसे नीचे उतर पड़ा। प्रथम तो वह मनसे ही सुखी था; परन्तु जब घोड़ेसे नीचे उतरा तब दोनों जनोंने परस्पर आलिंगन किया, इससे अब शरीरसे भी सुखी हुआ। मानों वे दोनों बालमित्र ही न हों इस प्रकार मानसिक प्रीति स्थिर करनेके लिए या फिर कभी प्रीतिभंग न हो इस आशयसे वे दोनों परस्पर हाथ पकड़ कर आनन्द पूर्वक वहांके बनमें फिरने लगे। परस्पर करस्पर्श करनेवाले, चित्तको हरनेवाले, जंगलमें फिरनेवाले मानो हाथी शिशुके समान शोभते हुए जब वे उस वन्यप्रदेशमें घूमने लगे तब तापसकुमार रत्नसार को पर्वत, नदी, सरोवर अपनी क्रीड़ाके स्थान वगैरह अपने सर्वस्वके समान वे बनसम्बन्धी सर्व दिखाव दिखलाने लगा। तापसकुमार रत्नसार. कुमारको वहांके बृक्षों, एवं उनके फल फूलोंके नाम इस प्रकार बतलाता था कि जैसे कोई शिष्य अपने गुरूको बतलाता है । इस प्रकार घूमनेसे लगे हुये श्रमको दूर करने और विनोदके लिये तापसकुमारके कहनेसे रत्नसारने उस सरोवर में उतर कर निर्मल जलसे स्नान किया। दोनो जनोंने स्नान किये बाद तापसकुमार ने रत्नसारके लिये पकी हुई और कञ्ची और साक्षात् अमृतके समान मीठी द्राक्ष लाकर दी। पके हुये मनोहर आम्रफल कि जिन्हें एक दफा देखनेसे ही साधु जनोंका चित्त चलित हो जाय तथा नरियलके फल, केलेके फल; क्षुधाको तेज करनेवाले खजूरके फल, अति स्वादिष्ट खिरणीके फल, तथा मधुर रसवाले संतरे नारंगी एवं नारियल, द्राक्ष, वगैरह का पानी कमलपत्र में भर कर लाया। तथा अनेक प्रकारके खुसबूवाले पुष्प लाकर उसने उस प्रदेशको ही सुरभित कर दिया। इत्यादि अनेक प्रशस्त बस्तुए लाकर उसने कुमारके सन्मुख रख्खीं। फिर रत्नसार भी तापसकुमार की अनेक प्रकारसे अति भक्ति देख प्रसन्न हो कर पहले तो तमाम वस्तुओं को देखने लगा फिर उन सबमेंसे अपूर्व पदार्थ देख यथायोग्य ग्रहण करके उसका भोजन करने लगा, क्योंकि ऐसा करनेसे ही भक्तजन की मेहनत सफल हो सकती है। राजाके भोजन किये बाद सेवकके समान रत्नसार के जीमने पर उस तोतेने भी अपने भोजनके योग्य फलोंका आस्वाद लिया। अश्वरत्न का भी जीन उतार कर चारापानी कराकर श्रम परिहार किया। क्योंकि विचारशील मनुष्य किसीका उचिताचरण करनेमें कसर नहीं उठा रखते। फिर कुमारके विचार जान कर गंभीर स्वभाव वाला वह तोता प्रीतिपूर्वक तापसकुमार से पूछने लगा कि, हे ऋषिकुमार ! तुमने इस विकसित यौवनावस्था में यह असंभवित तापस व्रत क्यों अंगीकार किया है। सर्व संपदाको निवास करने या रक्षण करनेके लिए प्राकाररूप कहाँ यह तेरा सुन्दर आकार और कहाँ यह संसारका तिरस्कार करनेवाला दुष्कर व्रत ! यह चतुरता और सुन्दरता की
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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