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________________ श्राविथि प्रकरण २७७ उसे पहली ही चोटमें पराजित कर दिया, और अन्तमें उसे वहां ही जानसे मार कर वल्लभीपुर अपने ताबे कर लिया। इसलिये शास्त्रमें-"तित्थोगिलि पयण्णामें" यह लिखा है कि, विक्रमार्क के संवतसे तीनसौ पिछत्तर वर्ष व्यतीत हुये बाद वल्लभीपुर भंग हुवा। मुगलोंको उनके शत्रुओंने निर्जल देशमें भेजकर मारा । सुना जाता है कि मुगल लोग भी निर्जल देशमें मारे गये थे। इस प्रकार रांका शेठका अन्यायसे उपार्जन किया हुवा द्रव्य अनर्थके मार्गमें ही व्यय हुवा । परन्तु उससे उसका सदुपयोग न हो सका। ____ अन्यायसे उपार्जन किये हुए द्रव्यसे और क्या सुकृत बन सकेगा ? इस विषयमें उपरोक्त दृष्टान्त काफी है। उपरोक्त लिखे मुजब अन्यायसे कमाये हुए धनका फल धर्मादिकसे रहित ही होता है ऐसा समझ कर न्याय पूर्वक व्यवहार करनेमें उद्यम करना, क्योंकि उसे ही व्यवहार सिद्धि कहा जाता है। शास्त्रमें कहा है कि-विहाराहारब्याहार व्यवहारस्तपस्विनाम् । ग्रहोणंत व्यवहार एव वदो विलोक्यते ॥ विहार करना, आहार ग्रहण करना, व्यवहार याने तप करना और व्यवहार याने क्रिया करना, साधुओंके लिये इतने शब्दोंमें से व्यवहार अर्थ लिया जाता है। परन्तु श्रावकों के लिये सिर्फ व्यवहार सिद्धि ही अर्थ लिया जाता है। इसलिये श्रावक लोगोंको जो जो धर्मकृत्य करने हों वे ब्यवहार शुद्धि पूर्वक ही करने चाहिये । व्यवहार शुद्धि विना श्रावक जो क्रिया करे वह योग्य नहीं गिनी जाती। श्रावक-दिन कृत्यमें कहा है किकेवलो प्ररूपित जैनधमका मूल व्यवहार शुद्धि ही है। इस लिए व्यवहार शुद्धिसे ही अर्थ शुद्धि होती है । (द्रव्य शुद्धि व्यवहार शुद्धिसे ही होती है) अर्थ शुद्धि--न्यायोपार्जित वित्तसे आहारशुद्धि होती है और आहारशुद्धि से (न्यायोपार्जित वित्तसे ग्रहण किये हुए अन्नादिकसे ) शरीर शुद्धि होती है। शरीर शुद्धिसे दुष्ट विचार पैदा नहीं होते। शरीर शुद्ध होने पर ही मनुष्य धर्मकृत्य के योग्य होता है, और जब वह धर्मके योग्य हुआ हो तबसे ही जो जो कृत्य करे वह उसे सर्व फल देने वाला होता है। यदि ऐसा न करे तो वह फल रहित होता है। ऐसा किये बिना जो जो कृत्य करता है वह व्यवहारशुद्धि रहित होनेसे धर्मकी निंदा कराने वाला ही हो जाता है। जो धर्मकी निन्दा कराता है उसे और अन्यको भी बोधिबीज की प्राप्ति नहीं होती, यह बात सूत्र में भी बतलाई हुई है। इस लिए विवक्षण पुरुषको सर्व प्रयत्नसे ऐसा ही वर्ताव करना चाहिये कि जिससे मूर्ख लोक उसके पीछे धर्मकी निंदा न करें। लोकमें भी आहारके अनुसार ही शरीरका स्वभाव और रचना देख पड़ती है। जैसे कि वाल्यावस्था में जिस घोड़ेको भैंसका दूध पिलाया हो, भैंसोंको पानी प्रिय होनेसे जैसे वे पानीमें तैरने लगती हैं वैसे ही वह भैसका दूध पीनेवाला घोड़ा भी पानीमें तैरता है, और जिस घोड़ेको वाल्यावस्था में गायका दूध पिलाया हो वह घोड़ा पानीसे दूर ही रहता है। वैसे ही जो मनुष्य वाल्यावस्था में जैसा आहार करता हैं वैसी ही उसकी प्रकृति बन जाती है। बड़ा हुए बाद भी यदि शुद्ध आहार करे तो शुद्ध विचार आते हैं और अशुद्ध आहार करनेसे अवश्य कुबुद्धि प्राप्त होती है। लौकिकमें भी कहावत है कि 'जैसा आहार वैसा उद्गार'। इस लिए सद्विचार लानेके वास्ते व्यवहारशुद्धि की आवश्यकता है। व्यवहारशुद्धि पीठिकाके
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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