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श्राद्धविधि प्रकरणे करनेसे शरीरमें खुजली पित्तादिक रोग उत्पन्न हुए थे इससे उसका औषध उपचार करीनके लिये शैलकपुरम आये। वहांपर उसका पुत्र मंडूक राजा राज्य करता था उसने अपने घोडे बांधनेकी मानशालामें उन्हें उत रनेकी जगह दी और बैद्योंको बुलाकर औषधोपचार कराया। इससे उनके शरीरके सब रोगोंकी उपशांति होगई तथापि स्नेहवाले सरस आहारके लालवसे उनकी वहांसे विहार करनेकी इच्छा नहीं होती। इससे गुरुकी आज्ञा ले पंथक मुनिको उनकी सेवा करनेके लिये वहां छोड़कर तमाम शिष्य विहार कर गये। एक दिन कार्तिक पूर्णिमाकी चौमासीका दिन होने पर भी यथेच्छ आहार करके शेलकाचार्य सो रहे थे। प्रति. क्रमणका समय होने पर भी जब गुरु न उठे तब पंथिक मुनिने प्रतिक्रमण करते हुये चातुर्मासिक क्षमापना खमानेके समय अवग्रह में आकर गुरुके पैरोंको अपना मस्तक लगाया। गुरु तत्काल जागृत हों कोपायमान हुए, तब पंथक बोला कि स्वामिन् ! आज चातुर्मासिक होनेसे चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करते हुये चार मासमें ज्ञाताज्ञात हुये अपराधकी क्षमापनाके लिये आपके पैरोंको अपना मस्तक लगाया है । यह वचन सुनकर शेलकाचार्य वैराग्य प्राप्त कर विचारने लगा कि मुझे धिक्कार हो कि आज चातुर्मासिक दिन है मुझे इतनी भी खबर नहीं ? सरस आहारको लालचसे मैं इतना प्रमादी बन गया हूं। फिर उन्होंने वहांसे विहार किया , मार्गम उनके दूसरे शिष्य भी मिले । अन्तमें शत्रुञ्जय पर्वत पर चढ़कर अपने शिष्यों सहित वे वहां ही सिद्धि पदको प्राप्त हुये।
"क्रिया और ज्ञान"
इसलिये प्रति दिन गुरुके पास धर्मोपदेश सुनना । सुनकर तदनुसार यथाशक्ति उद्यम करने में प्रवृत्त होना । क्योंकि औषधि क्रियाको समझने वाला औद्य भी रोगोपशांति के लिये जबतक उपाय न करे तबतक कुछ जानने मात्रसे रोगोपशान्ति नहीं होती । इसके लिये शास्त्रकारने कहा है कि, :
क्रियेव फलदाघुसा। न ज्ञानं फलदं मतम् ॥
यत स्त्री भक्ष्य भोगज्ञो। न ज्ञानात्सुखभाग भवेत् ॥१॥ क्रिया ही फलं दायक होती है, मात्र जानपन फलदायक नहीं हो सकेता। जैसे कि, स्त्री, भक्ष्य, और भोगको जाननेसे मनुष्य उसके सुखका भागीदार नहीं हो सकता, परन्तु भोगनेसे ही होता है।
जाणंतों विहुतरि। काईन जोगं न जुजई नईए ।।
सो बुडडइ सोएंण । एवं नाणी चरण हीणो ॥२॥ ___ तैरनेकी क्रिया जानता हो तथापि नदीमें यदि हाथ न हिलावे, तो वह डूब ही जाता है, और पीछेसे पश्चात्ताप करता है, वैसे ही क्रिया विहीन को भी समझना चाहिये। दशा स्कन्धकी चूर्णिमामैं भी कहा है कि,
"जो अकिरि अचाई सो भविप्रो प्रभवि आवा नियमा किरहपख्खिनो किरिआवाई नियमाभविभो नियमासुक्क परिखमो अन्तोपुग्गल परिभट्टस निश्मा सिमझई संपदिछी मिच्छादिछी