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________________ श्राद्धविधि प्रकरण १०६ अंगलुहन करके दूसरे शुद्ध वस्त्र पहनते हुए भी वस्त्र युक्तिपूर्वक उतार कर भीने पैरोंसे मलिन जमीनको स्पर्श न करते हुये पवित्र स्थान पर जाकर उत्तर दिशा सन्मुख खड़ा रह कर मनोहर, नवीन, फटाहुवा, या सांधेवाला न हो ऐसा विस्तीर्ण सुफेद वस्त्र पहनना । शास्त्र में कहा है किः, विशुद्ध वपुषः कृत्वा, यथायोगं जलादिभिः॥ धौतवस्त्रे च सीतेन्द, विशुद्ध धूपधुपिते ॥१॥ . (श्लौकिकमां ) न कर्यात्संघितं वाक्यं, देवकर्माणि भूमिय ॥ न दग्धं न च वैच्छिन्नं, परस्य न तु धारयेत् ॥२॥ कटिस्पृष्ट तुयद्वस्त्र, पुरीषं येन काशितं ॥ समूत्र पैथुनं वापि, तव्दस्व परिवर्जयेत् ॥३॥ एकवस्त्रो न भुजीत, न कायांबवतार्चनं ॥ न कुचुक विना कार्या, देवार्चा स्त्री जनेनच ॥४॥ योग समाधिके समान निर्मल जलसे शरीरको शुद्ध करके, निर्मल धूपसे धूपित-धोये हुये दो वस्त्र पहरे । लौकिकमें भी कहा है कि, "हे राजन् ! देव पूजाके कार्यमें सांधा हुवा, जला हुवा, फटा हुवा या दूसरेका वस्त्र न पहनना । एक दफा भी पहना हुवा या जिसे पहन कर लघुनीति, बडीनीति, या मैथुन किया हो वैसा वस्त्र न पहनना । एक ही वस्त्र पहन कर भोजन न करना, एवं देवपूजा भी न करना। स्त्रियोंको भी कंचुकी पहिने बिना पूजा न करनी चाहिए। इस प्रकार पुरुषको दो और स्त्रीको तीन वस्त्र पहने बिना पूजा करना नहीं कल्पता। देवपूजन आदिमें धोये हुए वस्त्र मुखवृत्तिसे अति विशिष्ट क्षीरोदकादि धवले ही उपयोगमें लेना । जिस तरह उलयन राजाकी रानो प्रभावती आदिने भी धवले ही वस्त्र उपयोग; लिये थे वैसे ही अन्य स्त्रियोंको भी धवले ही वस्त्र देव पूजामें धारण करना चाहिए। पूजाके वस्त्र निशीथ सूत्रमें भी सफेद ही कहे हैं। 'सेय वच्छ नियसणो, सफेद वस्त्र पहन कर (पूजा करना) ऐसा श्रावक दिनकृत्यमें भी कहा है। क्षीरोदक वस्त्र पहननेकी शक्ति न हो तो हीरागल (रेशमी ) धोती सुन्दर पहनना। पूना, षोडशकमें भी "सितशुभवरेण" सफेद शुभ वस्त्र, ऐसा लिखा है। उसीकी वृत्तिमें कहा है कि, सितवस्रण शुभबस्त्रेण च शुभनिह सितादन्यदपि पट्ट युग्मादिरक्त पीतादि वण परिनिहते, सफेद और शुभ वस्त्र पहनना, यहां पर शुभ किसे कहना? सुफैदकी अपेक्षा जुदे भी पटोला वगैरह खपता है । लाल, पीले वर्णवाले भी ग्रहण किये जाते हैं। 'उत्तरासन धारण करनेके विषयों 'एग साडीयं उत्तरासंग करेइ, आगमके ऐसे प्रमाणसे उत्तरासन अखंड एक ही करना परंतु दो खंड जोड़कर न करना चाहिये । एवं दुकूल (रेशमी वस्त्र ) भी भोजनादिकमें सर्वदा धारण करनेसे अपवित्र ही गिना जाता है इसलिये वह न धारण करना । यदि लोकमें ऐसा मानाहुवा हो कि, रेशमीवस्त्र भोजन और मलमूत्रादिसे अपवित्र नहीं होता तथापि वह लोकोक्ति जिनराजकी धारण चरितार्थ न करना,
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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