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________________ अध्यात्मकल्पद्रम [ षोडश .. प्रन्थकर्ता सदैव परहित करनेकी उच्च वृत्तिसे ही प्रेरित होते हैं, फिर भी परहित भी तत्त्वसे आत्महित ही होनेसे इसीप्रकार समतारसप्रधान जीवनवालेका प्रथम कर्त्तव्य होनेसे, सूरिमहारा. जने यह ग्रन्थ स्वपरहित निमित्त बनाया है। इन्हीं महात्माके पदचिन्होंपर चल कर और इसीप्रकारकी अभिलाषासे प्रेरित होकर यहां कुछ विवेचन करनेका प्रयास किया गया है । इस कार्यमें कहांतक सफलता मिली है वह देखनेका कार्य लेखकका नहीं हैं, परन्तु शुद्ध हृदय रखनेका तथा बतलाये भावोंको प्रगट करना उसका कर्तव्य है । सूरिमहाराजने इस प्रन्थरचनामें अपनी शक्तिका अत्यन्त सदुपयोग किया है ऐसा हमारा अनुमान है ( इसके लिये उपोद्घात पढ़े ) यह ग्रन्थ अध्यात्मज्ञानका कल्पवृक्ष है, वाचक यदि भूल करे तो एक बात ही अलग है, वरना जिस वस्तुकी याचना की जायगी वह वस्तु यह कल्पवृक्ष शिघ्र ही देगा। उपसंहार. इममिति मतिमानधीत्यचित्ते रमयति यो विरमत्ययं भवाद् द्राक् । स च नियतमतो रमेत चास्मिन् सह भववैरिजयश्रिया शिवश्रीः ॥ ८॥ " जो बुद्धिमान् पुरुष इस ग्रन्थका अध्ययन कर इसकों चित्तमें रमण कराते हैं वे अल्पकाल में ही संसारसे विरक्त हो जाते हैं और संसाररुप शत्रुके जयकी लक्ष्मी के साथ मोक्षलक्ष्मीकी क्रिड़ा अवश्य करते हैं । " आर्यागीति. विवेचन-इस ग्रन्थ के अध्ययन और रमण ( निदिध्याचारों पदमें अनुक्रमसे १२-२०-१२-२० आत्रा होती है।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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