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६५८ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[ षोडश आनंद है उनकी बानगी यदि यहां चखना हो तो वह समताप्राप्तिसे ही प्राप्य है।
ग्रन्थकर्त्ताने कितना विचारपूर्वक यह ग्रन्थ लिखा है वह इस श्लोकद्वारा जाना जा सकता है। अनेक शास्त्रोंका दोहन करके यह ग्रन्थ लिखा गया है। शांतरसात्मक ग्रन्थका दोहन करनिकाला हुआ रस जिस समय पान किया जाता है उस समय मन खिल उठता है, अनिर्वचनीय सुखका अनुभव करता है और प्रफुल्लित होता है । इस प्रकार जब समतारसका अनुभव करता है, रसाधिराजका सेवन करता है अर्थात् जब ममताका त्याग कर समताको ग्रहण करता है तब ऊपरोक्तानुसार मोक्षसुखकी बानगी इस मनुष्य जन्ममें भी प्राप्त कर सकता है । प्राधि, व्याधि, उपाधिका त्याग, कषायका विरह और स्वात्मसंतोष जहां सब एक साथ एकत्र हो जाय वहां फिर क्या बाकी रहता है ?
प्रिय वांचक ! थोडासा एक बार अनुभव करना । इस अन्धके पढ़ने का यही एक फल है । आत्मदर्शन करना हो, दुःखका सर्वथा नाश करना हो तो इस ग्रन्थको दस बीस बार पढ़ना, विचारना और समझना । प्रन्थकारने जो विचार बतलाये हैं वे हद विचार किये पश्चात् सिद्ध किये हुए विचार ही हैं। प्रथम दृष्टिसे सामान्य जान पड़नेवाले विषय भी अत्यन्त गंभीर हैं। इस सुखका अनुभव होने पर तुझे इसमें अपरिमित आनंद प्राप्त होगा और तब फिर और अधिक कुछ कहनेकी आवश्यकता न होगी।
__ कर्ता, नाम, विषय, प्रयोजन. शान्तरसभावनात्मा,
मुनिसुन्दरसूरिभिः कृतो ग्रन्थः । ब्रह्मस्पृहया ध्येयः,
स्वपरहितोऽध्यात्मकल्पतरुरेषः ॥ ७॥