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६५४ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[षोडश तुझे जब स्वीपर और धूलपर, अपनेपर और परायेपर समभाव होगा तब ही समझेगा कि तेरा पारा निकट भा पहुंचा है । अभी तो एकाएक खबर मीली है कि हे भाई ! तेरा लड़का गिर पडा है, सख्त चौट लगी है, रुधिरकी धारायें बह नीकली है आदि । इन शब्दोंके सुनने पर इस जीवके घबराटका पार नहीं रहता है । चाहे जितने कामों में भी क्यों न फँसा हो किन्तु उन सबको ज्यों का त्यों छोड़कर एक ओर वैद्योंको बुलाने के लीये
आदमी दौड़ायगा और दूसरी ओर वह स्वयं भी उस स्थानपर शिघ्रातिशीघ्र पहुंचनेका प्रयास करेगा। मार्गमें उसके हृदयमें कीतने प्रकारके संकल्पविकल्प उठते रहते हैं यह पाठक स्वयं विचार करे। आधे मार्गको तय करनेपर सूचना मीलती है कि यह तो दूसरोंका लड़का था। जो की गिर पड़ा है । " अहो ठीक हुआ" ये उद्गार नीकल पड़ेगे। यह सब क्या बतलाता है ? जबतक अपने लड़के और पराये लड़कमें इतना भेद रहता है तबतक यह नहीं कहा जा सकता है कि हमे समभाव प्राप्त हो गया है। जब अपने तथा परायेके पुत्रकी ओर एकसा प्रेमभाव अथवा उदासीनता रहें (परन्तु अपने लड़केपर प्रेम और दुसरेके लड़केपर धिक्कार नहीं) तब ही समता प्राप्त होती है और तब ही निःसंगता प्राप्त होती है और अन्तमें अजरामर सुख भी तब ही प्राप्त होता है।
जिसप्रकार अपने तथा परायेपर समभाव रखनेकी भावश्यकता है उसीप्रकार संपत्ति और विपत्तिके प्रसंगोंपर भी मनकी स्थिरता बनाइ रक्खे तो ही समता प्राप्त होना कहा जा सकता है । इस विषयपर अन्यत्र बहुत कुछ लिखदिया गया है इससे यहां विस्तार करनेकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है ।