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জঘিাষ] साम्यसर्वस्व
[ ६५३ त्याग करनेका विचार होता है, विचारसे कार्य होता है, कार्यसे समतागुण प्राप्त होता है और समतासे नि:संगता प्राप्त होती है, जिनके होनेपर वैराग्यशतककारके कथनानुसार गायन और विलाप, नृत्य और विटम्बना, प्राभूषण और भार, कामभोग और दुःख के साधनोंमें उसको कुछ भिन्नता नजर नहीं आती है ।
ममता और समताकी यह फिलॉसॉफी बहुत ध्यानमें रखने योग्य है । समताका यह भाव नहीं है कि बैठ रहें यह ऊपरके विवेचनसे स्पष्ट हुआ ही होगा। इन्द्रियोंकी शुभ प्रवृत्ति कराकर अपने जीवनको धर्ममय कर देना यह दुःषम कालानुसार स्वअधिकारानुसार 'समता'का प्रथम आदरणीय लक्षण है।
समताकी वानगी फलावाप्ति. स्त्रीषु धूलिषु निजे च परे वा,
सम्पदि प्रसरदापदि चात्मन् !। तत्त्वमेहि समतां ममतामुग् ,
येन शाश्वतसुखाद्वयमेषि ॥ ४ ॥
" स्त्रीपरसे और धूल परसे, अपनेपरसे और दूसरोंपरसे, सम्पत्तिपरसे और विस्तृत आपत्तिपरसे ममता हटा कर हे भात्मन् ! तू समता रख, जिसमे शाश्वत सुखके साथ ऐक्य हो।"
उपजाति विवेचन-समताका ही उपदेश विशेष स्पष्ट कीया जाता है ! हे आत्मन् ! यदि तुझे मोक्षसुखके साथ ऐक्य करना हो, अभेद करना हो, एकाकार वृत्ति करनी हो तो मैं कहता हूं वैसे तू समभाव प्राप्त कर । यह समभाव तेरा सर्वस्व है, यह ही तुझे दुःख मेंसे छुड़ानेको शकिमान् है और अध्यात्म प्रन्यका यह ही प्रथम पदसे उपदेशका विषय है ।