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अध्यात्मकल्पद्रुम [प्रयोदश संयमसे सुख-प्रमादसे उसका नाश. यस्य क्षणाऽपि सुरधामसुखानि पल्य
कोटीनृणां द्विनवती ह्यधिकां ददाति। किं हारयस्यधम ! संयमजीवितं तत्,
हा हा प्रमत्त ! पुनरस्य कुतस्तवाप्तिः ? ॥५६॥
"जिस ( संयम ) का एक क्षण ( मुहूर्त ) भी बानवें क्रोड़ पन्योपमसे अधिक समयतक देवलोकके सुखको देता है, ऐसे संयम जीवनको हे अधम ! तू क्यों हार जाता है ? हे प्रमादी ! तुझे फिरसे इस संयमकी प्राप्ति कैसे होगी ?"
वसंततिलका. .. विवेचन-टीकाकार लिखते हैं कि संयमजीवनका एक क्षण भी मनुष्यको देवलोकके सुख बानवे कोड़ पल्योपमसे अधिक समयवक देता है। सामाइयं कुएंतो, समभावं सावनो य घडिय दुगं । आउं सुरेसु बंधइ, इत्तियमित्ताई पलियाई ।। बाणवइ कोडीओ, लक्खागुणसहि सहसपणवीसं । नवसय पणवीसाए, सतिहा अडभागपलियस्स ॥
" सामायिक करते समय श्रावक दो घड़ीतक समभावमें रहता है तब वह इतना देवताका आयुष्य बांवता है । बानवे क्रोद, उनसठ लाख, पच्चीस हजार नो सो पच्चीस और वीन आठबन भाग (९२५९२५९२९१) पल्योपमका देवायु बांधता है" इति प्रतिक्रमणसूत्रवृत्ती.
एक क्षणमात्र चारित्र पालनेसे इतने कालतक देवताका महा सुख प्राप्त होता है । इस सुखका ख्याल आना भी कठिन
१ मुहूर्त-दो घड़ि