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________________ ५५० ] अध्यात्मकल्पद्रुम [त्रयोदश समता, दया, उदारता, सत्य, क्षमा, धीरज आदि सद्गुणोंके साथ मिला देना चाहिये और इस बात को ध्यानमें रक्खे कि यह दूसरी किसी कुसंगतिमे न पड़ सके । मत्सरत्याग. ध्रुवः प्रमादेर्भववारिधी मुने!, ___ तव प्रपातः परमत्सरः पुनः । गले निबद्धोरुशिलोपमोऽस्ति चेत् , कथं तदोन्मजनमप्य वाप्स्यसि ॥४३॥ " हे मुनि ! तू जो प्रमाद करता है उसके कारण संसारसमुद्रमें गिरना तो तेरा निश्चय ही है, परन्तु फिर भी दूसरोंपर मत्सर करता है यह गर्दनमें लटकाई हुई एक बड़ी शिलाके सदृश है; तो फिर तू इसमें से किस प्रकार उपर उठ सकता है ?" वंशस्थ. विवेचन–'प्रमादत्याग अधिकारमें हम देख चुके हैं कि प्रमाद करनेसे संसारसमुद्रमें पतन होता है । साधु धर्ममें आत्मजागृति रखना मुख्य धर्म है। जागृतिरहित व्यवहार निंद्य है, हेय है और अधःपात करनेवाला है। आत्मजागृतिसे चूकनेवाले प्रमादके वशीभूत होते हैं अथवा यों कहिये कि प्रमादके वशीभूत हुए प्राणी आत्मजागृति नहीं कर सकते हैं। ये दोनों बचन बराबर सत्य है । साधुको अप्रमत्त अवस्थामें रहने के लिये इसी कारण से आज्ञा दी गई है' और छद्मस्थपनमें अप्रमत्त दशा उसीप्रकार प्रमत्त दशाकी स्थितिके सम्बन्धमें जो शास्त्रका १ . समयं गोयम ! मा पमायए' “ हे गोतम ! समय मात्र भी प्रमाद न कर " यह वाक्य प्रमादका अत्यन्त अनर्थकारीगन बतलाने के लिये ही समयके सदृश सूक्ष्मकालके लिये उपयोग किया है, क्यों कि समयप्रमाण उपयोग छमस्थका होना कठिन है, परन्तु अंतर्मुहूर्त्तप्रमाण ही होता है ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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